रामायण संदर्शन

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Monday, April 6, 2009

माधव कन्दली

माधव कंदली की असमिया रामायण

चंद्र मौलेश्वर प्रसाद


चौदहवीं शताब्दी तक आते-आते वाल्मीकि रामायण की इतनी ख्याति फैल गई थी कि असम के राजा महामाणिक्य[१३३०-१३७०ई.] को अपनी भाषा में रामायण सुनने की इच्छा हुई। उन्होंने उस समय के प्रसिद्ध कवि माधव कंदली को असमिया भाषा में रामायण रचने की प्रेरणा दी। माधव कंदली ने इसे महाराज के आदेश के रूप में स्वीकार करते हुए कहा है--

कविराज कंदली ये आमोकेसे बुलवाया
करिलोहो सर्वजन बोधे
रामायण सुप यारा, श्री महामाणिके ये
बाराह राजा अनुसधे
सत काण्ड रामायण पदबंधे निबंधिलो
लम्भा परिहारी सरोध्रिते
महामाणिक्योरो बोलो काव्यरस किछो दिलों
दुग्धक मतिलो येन घृते
पंडित लोकर येबि असंतोष उपाजय
हथ योरे बोलों शुद्धबक
पुष्पक बिचारी येबे तैते कथा नपावाः
तेबे सबे निन्दिबा अमक॥


माधव कंदली ने वाल्मीकि रामायण को ही आधार बना कर कोथा रामायण की रचना की परंतु पात्रों को दैविक रूप न देकर मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत किया। उन्होंने राम, सीता आदि को ऐसे पात्र बनाए जिनमें सदगुणों के साथ-साथ कुछ मानवीय दुर्बलताएँ भी झलकती हैं। इसीलिए माधव कंदली रचित रामायण को वह धार्मिक महत्त्व नहीं मिल पाया जो पंद्रहवीं शताब्दी में कृत्तिबासी रामायण को या सोलहवीं शती में रामचरित्रमानस को मिला है।


इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि पंद्रहवीं सदी की राजनीतिक उथल-पुथल में माधव कंदली के इस महाकाव्य का आदि[प्रथम] काण्ड तथा उत्तर[अंतिम] काण्ड नष्ट हो गए। फिर भी, असमिय साहित्य में माधव कंदली के उत्तराधिकारी माने जाने वाले साहित्यकार माधवदेव तथा श्रीमन्त शंकरदेव [१४४९-१५६८ई.] ने आदि काण्ड तथा उत्तर काण्ड की पुनर्रचना करके कोथा रामायण को सम्पूर्ण किया। यह कहा जा सकता है कि श्रीमन्त शंकरदेव को माधव कंदली की रामायण धरोहर में मिली थी और वे इस पर कृतज्ञता जताते हुए अपनी कविता में कहते हैं--

पूर्वकवि अप्रमदि माधव कंदली आदि
पदे विरचिल राम कथा
हस्तिर देखिय लडा ससा येन फुरे मार्ग
मोरा भइला तेनह अवस्था॥


माधव कंदली ने अपनी रामायण में विभिन्न मीटर की शैली का प्रयोग किया गया है। इस महाकाव्य में पद, झूमर, दुलारी, छवि आदि का प्रयोग देखने को मिलता है। कवि ने पात्रों को जो मानवीय आकार दिया है, इसके कारण यह काव्य वाल्मीकि रामायण से भिन्न हो जाता है। जहाँ वाल्मीकि रामायण में करुणा रस झलकता है वहीं माधव कंदली की कथा श्रृंगार रस में डूबी नज़र आती है।


यह समझा जाता है कि माधव कंदली की रचनाओं के कारण ही असमिया साहित्य को पहचान मिली है। वाल्मीकि रामायण को वे वेद के समान मानते थे। तभी तो उन्होंने अपनी कृति में कुछ अंश सिधे वाल्मीकि रामायण से उठा कर उनका असमिया अनुवाद प्रस्तुत किया है। उन्होंने अपने महाकाव्य में कुछ क्षेपक भी जोडे़ हैं जो कदाचित महाराज महामाणिक्य के अनुरोध पर लिखे हों।


इसमें कोई संदेह नहीं है कि माधव कंदली का यह महाकाव्य भावी पीढी़ के लिए प्रेरणास्रोत बना तथा साहित्यकारों का पथप्रदर्शन करता रहा। तभी तो असमिया भाषा के प्रसिद्ध आलोचक बिरंची दास बरुआ कहते हैं - "अपने पीछे छोडे़ माधव कंदली के समृद्ध एवं सुंदर शैली का अनुसरण करते हुए शंकरदेव जैसे अगली पीढी़ के रचनाकारों ने उन्हीं के पदचिह्नों पर चलते हुए असमीय साहित्य में योगदान दिया। यही कारण है कि असम की संस्कृति पर भी रामायण की अमिट छाप देखी जा सकती है जो भारत के अन्य प्रदेशों में भी अपना प्रभाव रखती है।"

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संदर्भः १।द रामायणा ओफ़ माधव कंदली- रामचरन ठाकुरिया

२।मास्टरपीसेस ओफ़ इंडियन लिटरेचर- नेशनल बुक ट्रस्ट\

३। माधव कन्दली रामायण- शांतिलाल नागर का अंग्रेज़ी अनुवाद

४। माधव कन्दली- विकिपीडिया [अंतरजाल]

Wednesday, April 1, 2009

सर्वोच्च चरित्रात्मा


संसार की सर्वोच्च चरित्रात्मा
---रतनलाल जोशी



आर्यों के इतिहास में राम के सदृश विजेता और कोई नहीं हुआ। रावण का संहार कर उन्होंने आर्यों के सबसे बडे़ शत्रु का अंत ही नहीं किया बल्कि सम्पूर्ण राक्षस वंश और उसके मित्र वंशों को पराजित कर आर्य-प्रभुत्व की विजय पताका दूर-दूर तक फहरा दी। मुनि अगस्त्य ने दक्षिणांचल मे आर्यों के उपनिवेश बसाए थे, किन्तु अनार्यों के अपरिमित बल के सामने आर्य-प्रसार-अभियान दक्षिण में अवरुद्ध-सा ही पडा़ रहा। राम ने अपने अद्भुत नीतिकौशल और सामरिक पराक्रम द्वारा इस अभियान को अपने चरमोत्कर्ष तक पहुँचाया। अतः राम ही भारत के आदि-निर्माता हैं।
वर्तमान मैडागास्कर से लेकर आस्ट्रेलिया तक के द्वीप-द्वीपांतर पर रावण का राज्य था। राम-विजय के बाद इस सारे भू-भाग पर राम की कीर्ति व्याप्त हो गई। राम के नाम के साथ रामकथा भी इस भाग में फैली और बरसों तक यहाँ के निवासियों के जीवनक्रम का प्रेरक अंग बनी रही।
श्रीलंका और बर्मा में कई रूपों में रामकथा प्रचलित मिलती है। लोकगीतों के अलावा रामलीला की तरह के कई नाटक भी खेले जाते हैं। बर्मा में कई नाम राम के आधार पर हैं। ‘रमावत्ती’ नगर तो राम के नाम पर ही स्थापित हुआ था। अमरपुर के एक विहार में राम, लक्ष्मण, सीता और हनुमान के चित्र आज भी अंकित हैं।
मलय[अब मलेशिया] में रामकथा का प्रचार अभी तक है। वहाँ के मुसलमानों के नाम के साथ भी प्रायः राम, लक्ष्मण, सीता आदि नाम जुडे़ होते हैं। मलय में रामायण का नाम ‘हिकायत सेरीराम’ है।
थाइलैंड तो जैसे दूसरा भारत ही है। वहाँ रामकथा का प्रचार ही नहीं होता अपितु वहाँ के राजा भरत की भांति राम की पादुकाएँ लेकर राज्य करते रहे हैं। प्रत्येक राजा अपने को रामवंशी मानता था। यहाँ ‘अजुधिया’, ‘लवपुरी’ और ‘जनकपुर’ है। थाइलैंड में रामकथा को ‘राम कीर्ति’ कहा जाता है। मंदिरों में जगह-जगह रामकथा के प्रसंग अंकित हैं।
हिंद्चीन के अनाम में कई शिलालेख मिले हैं, जिनमें राम का यशोगान है। यहाँ के निवासियों में ऐसा विश्वास प्रचलित है कि वे वानर कुल से उत्पन्न हैं। अनाम का प्राचीन नाम चंपा है। ‘श्रीराम’ नाम के राजा यहाँ के सर्वप्रथम शासक थे। रामायण पर आधारित कई नाटक यहाँ के साहित्य में भी मिलते हैं।
कम्बोडिया में भी हिन्दू सभ्यता के अन्य अंगों के साथ-साथ रामायण का प्रचलन आज तक पाया जाता है। छठी शताब्दि के एक शिलालेख के अनुसार, वहाँ कई स्थानों पर रामायण और महाभारत का पाठ होता था।
जावा में रामचंद्र राष्ट्रीय ‘पुरुषोत्त्म’ के रूप में सम्मानित हैं। वहाँ की सबसे बडी़ नदी का नाम सरयू है। रामायण के कई प्रसंगों के आधार पर वहाँ आज भी रात-रात भर कठपुतलियों का नाच होता है। जावा के मंदिरों में वाल्मीकि रामायण के श्लोक जगह-जगह अंकित मिलते हैं।
सुमात्रा को वाल्मीकि रामायण में ‘स्वर्णभूमि’ नाम दिया गया है। रामायण यहाँ के जनजीवन में वैसे ही अनुप्राणित है जैसे भारतवासियों के। बाली द्वीप भी थाइलैंड, जावा और सुमात्रा की तरह आर्य संस्कृति का एक दूरस्थ सीमा स्तंभ है। रामायण का प्रचार यहाँ घर-घर में होता है।
इन देशों के अतिरिक्त फिलिपीन, चीन, जापान और प्राचीन अमेरिका तक रामकथा का प्रभाव मिलता है। मैक्सिको और मध्य अमेरिका की मय-सभ्यता और इन्का-सभ्यता पर प्राचीन भारतीय संस्कृति की जो छाप मिली है, उसमें रामायणकालीन संस्कारों का प्राचुर्य है। पेरू में राजा अपने को सूर्यवंशी ही नहीं ‘कौशल्या-सुत राम’ के वंशज भी मानते हैं। सारी ‘इन्का’ जाति अपने को रमवंशीय ही मानती है। ‘रामसीता’ के नाम से यहाँ आज भी रामसीतोत्सव मनाया जाता है।
प्रिंस्टन विश्वविद्यालय के विश्वविख्यात भारतविद्या-विशेषज्ञ डॉ। अल्फ्रेड ब्राउन ने शैव-संप्रदायों पर जो खोज की है एवं पुष्पदंत के ‘शिवमहिम्नत्रोम्‌’ की जो गवेषणापूर्ण व्याख्या लिखी है, वह अभी तक अन्यतम है। त्रिनिदाद में अपने भाषण में डॉ। ब्राउन ने बताया कि रामायण कैसे लिखी गई! वे कहते हैं कि इस प्रश्न का उत्तर ही रामायण की महानता का व्यंजक है। क्रौंचवध के शोक से श्लोक के रूप में वाल्मीकि की वाणी में जो रस-चैतन्य उदित हुआ था, वह वीतराग मुनियों में अपेक्षित नहीं था, किन्तु हिमालय जब द्रवित होता है तो गंगा ही बहती है। इसी प्रकार महर्षि द्रवित हुए तो रामायण ही प्रकट हुई। वाल्मीकि को अतींद्रिय दृष्टि उनकी करुणा ने दी थी, तीसरे नेत्र को उद्‌घाटन हुआ था। कवि जब ऐसी अलौकिक प्रतिभा प्राप्त कर लेता है, तभी उसे ‘कविर्मनीषी’ की प्रतिष्ठा मिलती है। डॉ। ब्राउन के अनुसार भवभूति ने अपने ‘उत्तररामचितम्‌’ नाटक में स्वयं ब्रह्मा के मुख से वाल्मीकि को ऐसे रसोन्मेष का पात्र बताया है।
ऋषे प्रबुद्धासि वागात्मनि ब्रह्मणि।
तवब्रूहि रामचरितम्‌।
अव्यहतज्योतिरार्धन्ते चक्षु प्रतिभाति।
आद्यः कविरसि।
[हे ऋषे, आपको प्रबुद्ध वाग्सिद्धि प्राप्त हो गई है, अब आप रामचरित का गायन कीजिए। आपकी प्रतिभा के दिव्य चक्षु खुल गए हैं, आप आदि कवि हैं।]॥

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साभार- डेली हिंदी मिलाप[मज़ा दि२९मार्च२००९ई।]