रामायण संदर्शन

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Wednesday, August 6, 2008

अगस्त २००८ अंक : तुलसी सो सुत होइ

निवेदन
तुलसी सो सुत होइ !


तुलसीबाबा की जयंती पर हर वर्ष उनके संघर्षपूर्ण जीवन के चित्र पुतलियों में तैरने लगते हैं। एक बालक जो जन्मते ही अनाथ हो गया! कहते हैं, कोई कुटिल नाम का कीट होता है जो संतान को जन्म देते ही मर जाता है। तुलसी अपने आपको उस कीट जैसा समझते रहे होंगे क्योंकि उनकी माता तो जन्म देते ही मृत्यु के मुख में चली गई थी, पिता भी ऐसे पुत्र को जन्मते ही त्याग कर कुछ काल बाद स्वर्ग सिधार गए। ऐसा पुत्र स्वयं को अभागा और अनाथ कुटिल कीट न समझे तो क्या समझे! भिक्षान्न पर निर्वाह करना पड़ा। वे अनुभव कितने विकट रहे होंगे जिन्होंने बाबा से कहलवाया कि जिस बालक को जन्मते ही माता-पिता तक ने त्याग दिया, उसके भाग्य में भला कुछ भी भलाई कहा¡ से आएगी। तुच्छता, हीनता, तिरस्कार और निरीहता से घिरे उस बालक को कुत्तों की तरह टुकड़ों पर ललचाते हुए भी उनसे वंचित रहना पड़ा होगा( तभी तो दरिद्रता और दशानन उन्हें एक जैसे दिखे होगे। उच्च कुल का यह बालक अज्ञातकुलशील और नाम-रहित होकर भूख से लड़-लड़कर बड़ा हुआ होगा। पर संयोग से बचपन में ही राम-चरित के प्रति आस्था का संस्कार मिल गया और `भांग´ होते-होते वे `तुलसी´ हो गए। अनाथ सनाथ हो गया। राम-मार्ग राजमार्ग हो गया। संघर्ष व्यर्थ नहीं गया। विद्या मिली। यश मिला। घर बस गया। गोस्वामी पद भी मिला। काम और राम का द्वंद्व भी चला। बोध भी हुआ,पश्चात्ताप भी और निश्चय भी। तुलसी अपने राम को समर्पित हो गए - ``बालेपन सूधेमन राम सनमुख भयो/राम नाम लेत मांगि खात टूक टाक हौं।/परयो लोकरीति में पुनीत प्रीति रामराय/मोहबस बैठो तोरि तरक तराक हौं।।/खोटे खोटे आचरन आचरत अपनायो/अंजनीकुमार सोध्यो रामपानि पाक हौं।/तुलसी गोसाईं भयो भोंडे दिन भूलि गयो,/ताको फल पावत निदान परिपाक हौं।।´´


तुलसी जयंती पर अनंत शुभकामनाओं सहित।

- ऋषभदेव शर्मा, संपादक

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आलेख

`विनय पत्रिका´ : राम को प्रेषित तुलसी का प्रार्थना पत्र

- डॉ विद्या विनोद गुप्त


गोस्वामी तुलसीदास के साथ कई चमत्कारपूर्ण कथाए¡ जुड़ी हुई हैं। कहा जाता है कि `मानस´ के महत्व का विवाद उठने पर काषी में विष्वनाथ मंदिर में उसे वेदादि के साथ रखा गया था और षिवजी की स्वीकृति´ पाई गई थी। अविष्वसनीय प्रतीत होने पर भी यह कथा कवि के रूप में तुलसी के संघर्ष की सूचना तो देती ही है। इसी प्रकार कहा जाता है कि एक बार गाय की हत्या करने वाला एक हत्यारा गा¡व में पुकारता फिरता था कि राम के नाम पर ``कोई मेरे हाथ का भोजन खाकर मुझे गौहत्या के पाप से मुक्ति दिला दे।´´ गोस्वामी तुलसी दास जी के कान में यह आवाज सुनाई पड़ी। उन्होंने राम नाम के नाते उसे बुलाया और बड़े पे्रम से अपने साथ खाना खिलाया। काषी के ब्राह्मणों ने यह सुनकर बड़ा हो हल्ला मचाया। गोस्वामी जी से पूछने लगे कि तुमने इस गौ हत्यारे के साथ बैठकर खाना क्यों खाया और यह कैसे जाना कि यह गौ हत्या से मुक्त हो गया ? गोस्वामी जी ने बड़े सहज भाव से सीधा सच्चा उत्तर दिया कि राम नाम का प्रताप ही ऐसा है - राम नाम लेने वाले को हत्यारा होने का पाप लग ही नहीं सकता। मठाधीष और ब्राह्मण समाज भला यह बात क्यों मानते लगा ? उन्होंने कहा - हम यह नहीं जानते। यदि इस हत्यारे के हाथ से विष्वनाथ जी का नंदी खाना खा ले तो हम जानें कि यह गौ हत्या के पाप से मुक्त हो गया। ऐसा ही किया गया और देखते ही देखते राम नाम के पुण्य प्रताप से काषी विष्वनाथ के मंदिर में पत्थर के नंदी ने उसके हाथ से खाना खा लिया। तब तो मठाधीषों और पंडितों की आ¡खें खुली की खुली रह गईं। राम नाम का प्रत्यक्ष प्रभाव देखकर सब लोग राम का जय जय कार करने लगे।


कहते हैं कि इस घटना से `कलि´ चिढ़ गया और तुलसी पर ही कुपित हो गया। यहा¡ कवि का महास्वप्न (फैंटसी) द्रष्टव्य है। कहा जाता है कि गोस्वामी जी ने दुखी होकर हनुमान जी से प्रार्थना की। हनुमान जी ने कहा कि हम इस समय कुछ नहीं कर सकते क्योंकि इस समय कलि का ही राज्य है। पर हा¡ यदि तुम श्रीराम जी की सेवा में विनयपूर्वक एक प्रार्थना पत्र लिख दो तो हम उसे उनकी सेवा में प्रस्तुत करके इस क्रूरकर्मा कलि को दंड दिला सकते हैं। इस पर तुलसीदास जी ने `विनय पत्रिका´ लिखी - ``संवत सोलह सौ इकतीसा, जेठ मास छठि स्वाती।/तुलसी दास इक अरज करत है, प्रथम विनय की पाती।´´ इसके अनुसार `विनय पत्रिका´ का रचना काल है संवत 1631। विनय पत्रिका का अर्थ है - प्रार्थना पत्र अथवा अरजी। यह अरजी तुलसी ने भगवान राम की सेवा में हनुमान जी के द्वारा भेजी है। उनके राम सम्राटों के भी सम्राट हैं। राजाओं के भी राजा है। अत: उनके दरबार में अरजी प्रस्तुत करने का तौर तरीका भी उनकी लोकोत्तर गरिमा के अनुसार होना चाहिए। (इसमें तत्कालीन सामंती प्रथाओं को भी देखा जा सकता है।)


विनय पत्रिका में सप्त परिसर है। इन सातों परिसरों में अधिकारी तैनात हैं ( क्रमष: गणेष, सूर्य, षिव, दुगाZ, गंगा, यमुना और हनुमान। छठे परिसर के अनंतर दो वन हैं - क्रमष: आनंद वन (काषी) और दूसरा चित्रवन (चित्रकूट)। इन सातों परिसरों के बाद भगवान राम का राजमहल है। वहा¡ तीन विषिष्ट अंग रक्षक हैं - लक्ष्मण, भारत और शत्रुघ्न। सभी की स्तुतियों के द्वारा उन सब को प्रसन्न करके तुलसी की अरजी अंत:पुर पहु¡चती है। वहा¡ जगत जननी जानकी जी की अनुषंसा के बाद अरजी भगवान राम के पास पहु¡चती है। अंत में राम अपनी स्वीकृति सहित अपना हस्ताक्षर भी करते हैं। तुलसी का कष्ट तत्काल दूर हो जाता है। ``विह¡सि राम कह्यो सत्य है, सुधि मैं हू¡ लही है।/मुदित माथ नावत बनी तुलसी अनाथ की परी रघुनाथ सही है।।´´


तुलसी राम के दास हैं उनकी राम भक्ति दास्य भक्ति है और उनकी दास्य भक्ति की अनन्यता विनय पत्रिका में परिलक्षित हुई है - ``राम सों बड़ो है कौन, मों सों कौन छोटो।/राम सो खरो है कौन, मों सों कौन खोटो।।´´ विनय पत्रिका में उनकी दास्य भक्ति के सप्त स्वरूपों के भी दषZन होते हैं - (1) दीनता - केहि विधि देऊ¡ नाथहिं खोरी?, (2) मान मर्षना - काहे ते हरि मोहि बिसारयो?, (3) भय दषZना - राम कहतु चलु राम कहतु, (4) भत्र्सना - ऐसो मूढ़ता या मन की?, (5) आष्वासन - ऐसे राम दीन हितकारी, (6) मनोराज्य - कबहुक हौं इहि रहनि रहौंगे, (7) विचारणा - केषव कहि न जाइ का कहिये। `विनय पत्रिका´ भक्तिरस का असाधारण काव्य है। दाषZनिक और साहिित्यक दोनों दृष्टियों से प्रौढ़ एवं उत्कृष्ट कृति है। यह महाराजा श्रीरामचंद्र जी को लिखा हुआ प्रार्थना पत्र है जिसमें कवि ने अपने उपास्य देवता राम के संबंध में अपने भावों को हृदय खोलकर रसोद्गार के साथ व्यक्त किया है। राम का जो प्रतीक तुलसी ने लोक के सम्मुख रखा है, भक्ति का जो प्रकृत आलंबन खड़ा किया है, उसमें सौंदर्य, शक्ति और शील तीनों विभूतियों की पराकाष्ठा है तथा सगुणोपासना का अलौकिक आलोक है। यह कृति हमारे आचरण को इतना उदात्त बनाना चाहती है कि हमें कलि कभी भी स्पषZ न कर सके।


सावित्री साहित्य सदन, 5/7, सरदार पटेल मार्ग चाम्पा, 495 671, छत्तीसगढ।


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आलेख

गोनबुद्ध रेड्डी कृत `रंगनाथ रामायणम्´

- चंद्र मौलेश्वर प्रसाद, सह संपादक


तेलुगु साहित्य में वैसे तो प्रसिद्ध कवि तिक्कना सोमयाजुलु और उनके पितामह द्वारा काव्यशैली में रचित रामकथा के अंष पाए जाते हैं, परंतु या तो वे टुकड़ों-टुकड़ों में उपलब्ध हैं या फिर नष्ट हो चुके हैं। इसीलिए तेलुगु के प्रसिद्ध कवि गोनबुद्ध रेड्डी को ऐसा पहला कवि माना जाता है जिन्होंने `रंगनाथ रामायणम्´ के रूप में ऐसी कृति की रचना की, जो वाल्मीकि जी की संस्कृत कृति पर आधारित संपूर्ण तेलुगु काव्य रचना कही जाती है। गोनबुद्ध रेड्डी को बुद्ध राजू तथा बुद्धैया के नाम से प्रसिदि्ध मिली।


`रंगनाथ रामायण´ की रचना द्विपद शैली में की गई है जिन्हें संस्कृत के अनुष्टुप पदों के निकट माना जाता है। ये पद गेय भी होते हैं। बुद्धराजू ने छह कांडों में रामायण की रचना की जिसमें 17,290 द्विपद हैं। उनके पुत्र ने उत्तरकांड को 5,640 पदों में पूर्ण किया। इस रामायण की भाषा सरल, सरस और मुहावरेदार होने के कारण जन-जन में बसी हुई है। इसी कारण यह काव्य कालजयी बन गया है।


`वाल्मीकि रामायण´ की पूर्ण कथा को यथावत ग्रहण करने के साथ-साथ बुद्धराजू ने कुछ मौलिक उद्भावनाएं भी की हैं जिनकी प्रेरणा उन्होंने अन्य स्रोतों से प्राप्त की और कुछ को खुद की कल्पनाषक्ति से ढाला। कुछ नए पात्रों की भी सृष्टि बुद्धराजू ने अपने इस महाकाव्य में की हैं जो `वाल्मीकि रामायण´ में नहीं मिलते ( जैसे सुलोचना (इंद्रजित की पत्नी), कैकसी (रावण की माता), जम्बुकुमार (षूर्पणखा का पुत्र) आदि।


`रंगनाथ रामायण´ में सीता-विवाह का वर्णन तेलुगु संस्कृति से जोड़कर वणिZत किया गया है जिससे पाठक को लगता है कि यह विवाह उसी के संस्कार से जुड़ा हुआ है। विवाह के वर्णन में कवि ने यह दषाZया है कि सीता लजाते हुए राम के कमल जैसे चरणों की ओर देख रही है और राम सीता के नीलकमल जैसे मुखड़े को निहार रहे हैं जो पूणिZमा के चंद्रमा सा खिला हुआ है। ऐसा वर्णन इस कथा को न केवल रोचक बनाता है बल्कि तेलुगु मानस की संस्कृति से पाठक को जोड़ता है।


बुद्धराजू की मंथरा भी वाल्मीकि की मंथरा से भिन्न है। वह राम से इस कारण बदला लेना चाहती है कि राम ने अपने बाल्यकाल में उसकी अपंगता का मखौल उड़ाया था। इसी प्रकार षूर्पणखा भी लक्ष्मण से इसलिए कुपित थी कि उन्होंने उसके पुत्र जम्बुकुमार को मार गिराया था जो उस पेड़ के तने के कोटर में बैठा तपस्या कर रहा था जिसे लक्ष्मण ने अनजाने में काटकर गिरा दिया था। कालनेमि की कथा भी `रंगनाथ रामायण´ में मिलती है जो वाल्मीकि रामायण में नहीं है। कालनेमि ने हनुमान का रास्ता उस समय रोका था जब वे लक्ष्मण के लिए संजीवनी लेकर लौट रहे थे।


`रंगनाथ रामायण´ के `युद्ध कांड´ में सुलोचना और कैकसी के बारे में उल्लेख है जो वाल्मीकि रामायण में नहीं मिलता। रावण-पुत्र इंद्रजित की विधवा सुलोचना अपने पति के शव के साथ सती होना चाहती है। इसके लिए वह रावण से विनती करती है कि युद्धस्थल से इंद्रजित का शव लाए¡। रावण के नकारने पर वह राम की शरण में जाती है। उसके तर्क और विनती को सुनकर राम द्रवित हो जाते हैं और इंद्रजित को जीवन-दान देकर पुन: जीवित करना चाहते हैं। तभी उन्हें रोकते हुए हनुमान कहते हैं कि ऐसा करना प्रकृति के नियम के विरुद्ध होगा। सुलोचना से सुग्रीव कहते हैं कि युद्धस्थल पर फैले शवों में से इंद्रजित की पहचान करें। सुलोचना सीधे इंद्रजित के शव के पास रुक जाती है। इस घटना को कवि ने बड़े ही प्रभावी ढंग से `रंगनाथ रामायण´ में प्रस्तुत किया है।


एक अन्य घटना में रावण की माता कैकसी के साित्वक जीवन का वर्णन बुद्धैया ने किया है। कैकसी सलाह देते हुए रावण से सीता को लौटाने की बात कहती है। रावण इस प्रस्ताव को ठुकरा देता है। वह विभीषण को राम की शरण लेने को कहती है। इस पात्र के माध्यम से कवि ने यह जतलाया है कि न्याय का पक्ष लेकर राजा के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले निभीZक लोग भी लंका में थे।


बुद्धराजू ने कुछ घटनाओं का इतना सुंदर व सषक्त वर्णन किया है कि नेे आगे चलकर लोकोक्तिया¡ बन गईं हैं। तेलुगु की ऐसी ही एक प्रसिद्ध लोकोक्ति है `उडुता भक्ति´ (गिलहरी भक्ति)। यह लोकोक्ति अनन्य भक्ति व श्रद्धा के लिए आज भी प्रयोग में लाई जाती है। इसे `रंगनाथ रामायण´ की उस कथा से जोड़ा जाता है जहा¡ गिलहरिया¡ अपनी क्षमतानुसार सेतु के कार्य में श्रद्धा-भक्ति से लगी रहीं। राम ने उनकी इस श्रद्धा को देखकर गिलहरी की पीठ पर अपनी तीन उंगलिया¡ फेरी थीं, जो आज भी गिलहरी की पीठ पर अंकित है।


जिस प्रकार संत तुलसीदास का `रामचरित मानस´ हिंदी भाषियों के जन-मानस में रचा-बसा है, उसी प्रकार बुद्धराजू की `रंगनाथ रामायण´ तेलुगु भाषियों की आदषZ संहिता बन गई हैं। तभी तो इस कालजयी रचना के रचनाकार बुद्धैया को `निपुण मति´ तथा `निखिल शब्दार्थ मर्मज्ञ´ जैसी संज्ञाओं से जाना जाता है। उनकी यह कृति न केवल घर-घर में बांची जाती है बल्कि कठपुतली के माध्यम से लोक कला का हिस्सा भी बन गई है।


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जय राम जी की


`रामायण संदषZन´ के जून अंक में सुधी पाठक वर्ग के अग्रगण्य भाई गुरुदयाल जी का विवेचनात्मक पत्र देखने का सुअवसर मिला। इस संबंध में निवेदन है कि रामायण के अध्येता विद्वान डॉण् राम निरंजन जी पांडेय द्वारा विरचित छंद की अंतिम लाइन का संदेष सुख संपत्ति दु:ख विपत्ति से समदषZन का संकेत संकल्प, आष्वासन है। पत्र का आरंभ 23 वर्ष पूर्व उन्हीं महामना के संपादन में हुआ था। प्रस्तुत अंक इस वर्ष का है। आदि संपादक पूज्य डॉण् रामनिरंजन जी पांडेय ने लगभग 20 वषांZें तक पत्रक की नि:षुल्क तन-मन से सेवा की। उन्हें भूलना तो कृतघ्नता ही होगी।


वित्तीय पक्ष में इस पत्र की अनेक प्रतिया¡ सादर/ सपे्रम/ सस्नेह भेंट में वितरित होती हैंं। डाक शुल्क की रियायत भी सीमित हैं। पूर्णता के साथ हमारी परिस्थितियों के कारण अनुपलब्ध है। कई स्नेही स्वजन आजीवन सदस्यता के साथ 25 मित्रों, शुभचिंतकों, परिजनों को नि:षुल्क प्रेषित करवाते हैं, इसीलिए आजीवन सहयोग राषि रुण् 2,400/- है।


`तजिए वचन कठोर´ में मूलत: बाबा तुलसीदास जी के वचनों की अक्षरष: पुनपुZस्तुत किया गया है। फोन नंबर संबंधी छापे की भूल सुधार ली है। पत्रक को सामान्य पाठक वर्ग के करीब लाने के लिए आपके सकारात्मक सुझाव-मार्गदषZन का सादर स्वागत हैं। संपादक जी अपनी विद्वत्ता के साथ ही अपनी सरलता सहजता के लिए भी विख्यात है। `बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं´ यह उक्ति उन्होंने चरितार्थ की है।


किसी भी संकल्प में कान पकड़ने वाले शुभचिंतक मार्गदषZक की जिस भूमिका का निर्वाह आपने किया है, भविष्य में इसी प्रकार करते रहेंगे, यह हमारा विश्वास है। शत शत नमन।


- रामकृपाकांक्षी, दुर्गा प्रसाद तिवारी 



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