रामायण संदर्शन

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Tuesday, October 21, 2008

अक्तूबर 2008: आलेख - २ : ढोल गँवार सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।

ढोल गँवार सूद्र पसु नारी।



सकल ताड़ना के अधिकारी।।






तुलसी-कृत ‘रामचरितमानस’ में प्रसंगवश कतिपय कथोपकथनों पर जब तब शंकाएँ और विवाद उठते रहे हैं। कभी-कभी विवादों को तूल देकर धार्मिक आस्थाओं को चोट पहुँचाने तथा रचनाकार के विवेक व विश्वसनीयता पर भी उँगली उठाने का काम भी किया जाता है। मानस के सुन्दरकाण्ड में राम व सिंधु के संवाद के अंतर्गत प्रयुक्त चौपाई ‘‘ढोल गँवार सूद्र पसु नारी/सकल ताड़ना के अधिकारी।।’’ पर विवाद इसका एक उदाहरण है। कहा जाता है कि नारी को ताड़ना का अधिकारी बता कर गोस्वामी जी ने समस्त नारी जाति का अपमान किया है। ऐसी शंका और विवाद चौपाई के अर्थ का अनर्थ करने तथा उसके निहितार्थ को सही परिप्रेक्ष्य में न समझ पाने के कारण पैदा हुआ है।



वास्तव में इस चौपाई द्वारा ताड़ना के अधिकारी पाँच नहीं केवल तीन ही बताए गए हैं -


1. ‘ढोल’ जिसका प्रयोग डंडे की चोट द्वारा ही संभव है।


2. ‘गँवार सूद्र’ का तात्पर्य तत्कालीन समाज में उस सेवक से है जो गँवार (मूर्ख व हठी) हो तथा जिसके व्यवहार से मालिक का नुकसान हो रहा हो।


3. ‘पसु नारी’ अर्थात् पशुवत् आचरण करने वाली स्त्री जो मर्यादा का उल्लंघन करे तथा विवेक को ताक पर रख कर परिवार में अशांति व कुंठाएं पैदा करे।



प्रस्तुत चौपाई के द्वारा ये तीन ही ताड़ना के अधिकारी बताए गए हैं। शेष दो शब्द ‘गँवार’ और ‘पसु’ का प्रयोग चौपाई में शूद्र और नारी के विशेषण के रूप में किया गया है।



यहाँ ‘ताड़ना’ शब्द पर भी ध्यान देना होगा। शब्द -कोश में ताड़ना का अर्थ मारना- पीटना ही नहीं ‘डाँटना-डपटना’ भी है। अस्तु ‘गँवार-सूद्र’ या ‘पसु-नारी’ को डाँट-डपट कर सुधारने का सुझाव देकर तुलसीदास जी ने कोई अन्याय नहीं किया।


विस्तृत परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि गोस्वामी जी ने नारी को सदैव आदर व सम्मान ही दिया है। यथा ‘‘अनुज-वधू भगिनी सुत-नारी। सुनु सठ कन्या सम ये चारी।।’’ इसी प्रकार हनुमान जी को सागर बीच जब सुरसा उदरस्थ करने पर अड़ गई, तब भी उसे माता कहकर ही संबोधित किया गया है यथा - तब तव वदन पैठिहउँ आई। सत्य कहउँ मोहि जान दे माई। श्रीराम और शबरी के प्रसंग में शूद्र और नारी दोनों के प्रति जिस ममता, प्रेम व सम्मान का वर्णन है उससे स्पष्ट हो जाता है कि रचनाकार पर नारी या शूद्र को अपमानित करने का आरोप निराधार और अन्यायपूर्ण है।¨

-- सत्य नारायण शर्मा



[ शूद्र और स्त्री को एक साँस में ढोल आदि के साथ रखने और ताडन का पात्र बताने वाली चौपाई की अनेक प्रकार से व्याख्याएं हो चुकी हैं। ''जड़'' जलधि के इस कथन का स्रोत गर्ग-संहिता आदि में पहले से उपलब्ध है. -- ''ताडनं मार्दवं यान्ति, शूद्राः पटहः स्त्रियः'' इसे उद्धृत करते हुए ,संभवतः, बाबा तुलसी के मन में उन संहिताओं की जड़ता पर व्यंग्य का भाव भी रहा हो जिन्होंने स्वयं बाबा को भी खूब सताया था. साथ ही तत्कालीन परिस्थितियों में बाबा के अपने अंतर्विरोधों से भी आँख नहीं फेरी जा सकती. सन्दर्भ-च्युत करके इस चौपाई के आधार पर जिसने भी जब भी तुलसी बाबा को स्त्री-विरोधी माना है, या शूद्र-शत्रु घोषित किया है ,उनके प्रति अन्याय ही किया है और अपनी संकुचित दृष्टि का प्रमाण दिया है. इसीलिये अनेक सहृदय जन इस चौपाई की अलग-अलग व्याख्या करते दिखाई देते हैं, जो स्वागतेय ही है --सं. ]

7 comments:

  1. रामचरितमानस की विवादित चौपाई पर अत्यन्त सुंदर व्याख्या है| हालाँकि मुझे इस पर कोई ख़ास आपत्ति नहीं रही है, क्योंकि मेरा मानना है की ये देश-काल और वातावरण के हिसाब से ली जानी चाहिए| किंतु जब आपने व्याख्या दी ही है तो मैं बाल की
    खाल निकालने कि कोशिश कर रहा हूँ|

    कृपया ये बताईये कि गोस्वामी जी ने पशु-नारी ही क्यों कहा? पशु-मानव क्यों नहीं? पशुवत आचरण करने वाले पुरूष के लिए
    क्या कोई दंड का प्रावधान नहीं था??

    अमित
    पश्चलेख: पुनः स्पष्ट करना चाहूँगा कि मुझे इस चौपाई पर कोई आपत्ति नहीं थी और ना है, इसका अर्थ स्त्रियों का अपमान करना
    नहीं है| ये बस देशकाल और वातावरण के सन्दर्भ में लिखी गई है|

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  2. आदरणीय अमित अग्रवाल जी,

    धन्यवाद् कि आप हमारे यहाँ पधारे
    और टिप्पणी दी.

    जब संदर्भित चौपाई से न आपको शिकायत है, न हमें.

    तब भला बाल की और खाल क्या निकालें !

    सत्य नारायण जी ने जो अर्थ निकाला है,
    हम तो इसे भी बचपन से सुनते आए हैं.

    फिर भी, सम्पादकीय मत उनके आलेख के अंत में कोष्ठक में दिया गया है.

    अब और ''का करि तरक बढ़ावहु साखा ''.

    संपर्क बना रहे.

    सादर आपका
    > ऋ.

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  3. आप ने बड़ी सफाई से चौपाई के तात्पर्य को बदल कर दोषमुक्त करने का प्रयाश जरूर किया है परन्तु आप इस बात से इंकार नही कर सकते कि नारी के साथ आदि काल से ही पक्षपात होता रहा है .

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  4. मैं तो कहता हूँ तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार

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  5. mujhe n choupai se koi dikkt h n uske arth se.agar baat istry ki h to wo hamesa pujniya h aur rahegi,magar kon se istry jisme naariytwa ho.purush bhi wahi aadar ka patra h jo maryadit ho,anyatha bali prasang me bhagwan ne kaha h "anuj badhu,bhagini sut nari.......aage poori choupai aap sab jante h,ase purush ko marne se koi pap nahi lagta.to isse spast h ki aadarniya tulsidas ji ne nari aur purush me koi bhed nahi kiya h.use hi dandit karne ko btaya h jo apni maryadaon se hat gya h aur isme bina kisi pachhpat ke kisi ko dikkt nahi honi chahiye.darsal me ye samjhta hu ki jis prakar ek docter hi,beemari ke baare me jaan sakta h kiyoki usne is sambandh me padai ki h,ek engineer hi apne field ke baare me achhi tarah samjh sakta h.isi tarah dharmik grantho aur bhakti kaal ke kaviyon ko samjhane ke liye hame dharmik hona hoga..aur dharmik hone ka arth kripya sirf pooja path se mat leejiyega iska arth bahut bistrit h kabhi fir charcha hogi.kahne ka arth ye h ki in sab grantho ko samjh ne ke liye hamare pass uchit yogita honi chahiye aur wo h iswar ke prit sachchi bhkti bhawana.iske bina kuchh bhi samjh pana sambhaw nahi h.
    aur uske liye sirf ye choupai paryapt h
    BIN SATSANG VIVEK N HOEE,AUR RAM KRIPA BIN SULABH N SOEE.
    ME KOI BIDWAN NAHI HU AGAR MUJH SE YA MERI BAAT SE KISI KO KOI DIKKT HO GAYEE HO TO ME CHHAMA PRARTHI HU AASHA H MUJHE NIRBUDHI SAMAJH KAR AAP CHHAMA KAR DEGE.
    JAI SHRI RADHEY

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  6. तुलसीकृत श्री रामचरितमानस के अनुसार,
    ढोल गँवार सूद्र पसु नारी।
    सकल ताड़ना के अधिकारी।।
    उपरोक्त चौपाई के संदर्भ में जो व्याख्या की गई है, उसके अनुसार.....
    ""पशुवत् आचरण करने वाली स्त्री जो मर्यादा का उल्लंघन करे तथा विवेक को ताक पर रख कर परिवार में अशांति व कुंठाएं पैदा करे।""
    ऐसी पशुवत् आचरण करने वाली नारी ही ताड़न की अधिकारी है,
    सभी नारियाँ एक जैसी नही होती है, नारियाँ घर की, कुल की, समाज की, लाज होती है, मान होती है, अभिमान होती है, आन,बान और शान होती है,
    और ऐसे व्यक्ति ही सभी को प्रिय होते है,
    संत तुलसीदासजी ने भगवान श्रीरामचन्द्रजी के सन्दर्भ में यह भी कहा है कि.....
    ""निर्मल मन-जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
    ईश्वर को भजने के लिए, उसे प्राप्त करने के लिए, दर्शन के लिए हमें वैसा ही बनना पड़ता है, जैसा स्वयं ईश्वर है,
    इसी संदर्भ में, जीतू भईया ने जो यह बात कही है कि.. ""मैं तो कहता हूँ तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार""
    ऐसी बातों से बैर उत्पन्न होता है, तभी तो कहा गया है कि 'तोलमोल के बोल,
    गोली का घाव भर जाता है, लेकिन कड़वी बोली का घाव जिंदगी भर नही भरपाता,

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