रामायण संदर्शन

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Saturday, November 29, 2008

नवम्बर २००८ अंक : आलेख : रामायण - सिंधी व अन्य भाषाओं में

रामायण - सिंधी व अन्य भाषाओं में

- रीटा शहाणी, 7, फ्लोरियाना एस्टेट, बोट क्लब रोड, पुणे - 411 001



सुजलां सुफलां मलयज शीतलाम्

शस्य श्यामलां मातरम्। वंदे मातरम्

शुभ्र ज्योत्स्ना पुलकित यामिनीम्

फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्

सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्

सुखदां वरदां मातरम्





बंकिमचंद्र चटर्जी ने इस राष्ट्रीय गीत में भारतमाता का अत्यंत संुदर विशेषणात्मक वर्णन किया है - मानो भारतमाता का आभूषणों से शृंगार किया हो। ये सब गुण सही हंै, वास्तविक हैं वरना ऐसा क्यों है कि सैंकड़ों वर्षों की परतंत्रता के बावजूद भारतवासियों की नैतिक अवस्था क्षीण हुई नहीं। उसका कारण हो सकता है हमारे संस्कार, हमारी आध्यात्मिकता जो भारत की मिट्टी के कण-कण में बसी है। पर वह आई कहाँ से ? किसी हद तक वह आई है हमारे ग्रंथों से, वेदों से, उपनिषदों से, हमारे महाकाव्यों से - रामायण से, महाभारत से। अन्य देशवासी आत्मा की बातें करते हैं, भारतवासी आत्मा जीते हैं। हमारे जीवन का केंद्र बिंदु आध्यात्मिकता है। हमारे रोम-रोम में राम बसे हैं तो लहू की हर बूंद में कृष्ण। हमारी जड़ें सुदृढ़ हैं। हमारी इमारत स्वस्थ, सुसंस्कृत व शक्तिशाली नींवों पर टिकी हैं। राम और कृष्ण ने हर भारतवासी के मन पर अपनी छाप छोड़ी है। एक ओर कृष्ण की चंचल, नटखट लीलाएँ, प्रेम से भरी मधुर बाँसुरी, राधा व गोपियों के संग रास, उनके अनोखे राजनैतिक मूल्य, रण-क्षेत्र में, अर्जुन के साथ संवाद, उनका गीता ज्ञान, हृदयों को आकर्षित करने वाली बातें, दूसरी ओर श्रीराम, धीर गंभीर, मर्यादा पुरुषोत्तम, धनुर्धारी, शूरवीर, वचन व कर्तव्य परायण, आदर्शवादी नृप! दोनों ही चरित्र उच्च मानवीय गुणों से संपन्न होते हुए भी, समान हाते हुए भी विपरीत हैं। कृष्ण चंचल है और राम गंभीर। कृष्ण राजनीति के दाँवपेंचों में माहिर पर राम कठोर, सत्यवादी व अनुशासन के पालनकर्ता। कृष्ण विनोद प्रेमी, संगीत व नृत्य का रस लेने वाले, बाँसुरी के सुरों के अधिकारी, जबकि राम इन विनोदी बातों से परे, उच्च आदर्शों के सिंहासन पर विराजित हैं।





विद्वानों का कथन है कि रामायण महाभारत से पूर्व रचित है क्योंकि महाभारत में रामायण का जिक्र आता है। अनेकों रामायणें लिखी गईं और विभिन्न लेखकों ने राम को अपनी दृष्टि से देखकर चित्रित किया। कहीं-कहीं राम के रूप और गुणों में भिन्नता भी आ गई। वाल्मीकि ने राम कथा तब लिखी थी जब श्रीराम जीवित थे अर्थात उनके जीवनकाल में ही रची गई थी (इस राच में भी विद्वानों के मतभेद हैं किन्तु हम इस मत को ही मानकर चलते हैं)। सीता को वाल्मीकि ने ही वन में अपने आश्रम में आश्रय दिया था। वाल्मीकि रामायण में श्रीराम का मानवीय चरित्र है। तुलसीदास ने राम को भगवान का अवतार ही मानकर पूजा की और मानवीय दुबर्लताओं से दूर रखा। यह स्वाभाविक भी था क्योंकि दोनों रामायणों की रचना में सदियों का अंतराल था। कम्बन रचित रामायण (तमिल) जो रामचरितमानस से पूर्व 11वीं शताब्दी में लिखी गई थी, में भी श्रीराम का ईश्वरीय रूप विदित होता है और तुलसीदास ने 16 वीं शताब्दी में ऐसा ही किया।




वाल्मीकि की रामायण थोड़ी सी भूमिका के पश्चात, शीघ्र ही अयोध्या के राजा दषरथ की कथा से आरंभ होती है जबकि तुलसीदास की रामायण का आरंभ पूजा याचना के पृष्ठों, शिव-पार्वती के संवाद तथा अन्य कथाओं के साथ किया गया है। मूल वाल्मीकि रामायण में ‘अयोध्या कांड’ से ‘युद्ध कांड’ तक केवल पांच कांड हैं। ‘उत्तर कांड’ बाद में जोड़ा गया है। ‘उत्तर कांड’ के पश्चात ‘लव कुश’ वार्ता का वर्णन है, अनेक बातें विस्तार पूर्वक बताई गई हैं। राजा रामचंद्र का अश्वमेध यज्ञ, लव कुश का अश्व को रोकना और घमासान युद्ध का वर्णन। श्रीराम का वाल्मीकि के आश्रम में पधारना। सीता से मिलना और सीता का धरती में समा जाना। रामचरित मानस में उपर्युक्त बातें नहीं हैं। वाल्मीकि रामायण संस्कृत भाषा में है और रामचरितमानस अवधी - जनसाधारण की भाषा में।




गंगाराम सम्राट अपनी सिंधी रामायण ‘शुद्ध रामायण’ में लिखते हैं - ‘‘कुछ विद्यमान विद्वानों के अनुसार वाल्मीकि रामायण के द्वितीय कांड से छठे कांड तक की रचना, आदि कवि वाल्मीकि द्वारा की गई थी और उसी रामायण के बालकांड व उत्तर कांड में प्रस्तुत राजा राम की रचना राजा दशरथ के समकालीन ऋषि वाल्मीकि ने की थी और वे दोनों अलग-अलग व्यक्ति थे।’’ (पृ. 6) ऐसे अनेक विवादी मत हमें विभिन्न विद्वानों के मिलेंगे।




सिंधी में लोकराम डोड़ेजा की ‘श्री तुलसी रामायण’ 1959 में प्रकाशित हुई थी जिसके 8 संस्करण निकल चुके हैं और सिंधियों में वह काफ़ी लोकप्रिय है। यह कथा गद्य मंे है और तुलसी कृत रामचरितमानस पर आधारित है। यह कई चित्रों से भी सुशोभित है। दूसरी महत्वपूर्ण व विस्तारपूर्ण सिंधी रामायण ‘शुद्ध रामायण’ वाल्मीकि रामायण के रचयिता हैं गंगाराम सम्राट जो 1989 में प्रकाशित हुई। उस पुस्तक की भूमिका ही 74 पृष्ठ की है जो शोधपूर्ण तथा गहन अध्ययन पर आधारित है। एक अन्य सिंधी रामायण सतरामदास साइल रचित उल्लेखनीय है।




महाराष्ट्र में एकनाथ श्रीराम समर्थ तथा अन्य कवियों ने रामायण का रसपान लोगों को कराया था। उनमें से बीसवीं शताब्दी के कवि जी.डी.माडगुलकर थे, जिन्होंने गीत रामायण की रचना की। यह कृति मधुर गीतों के कारण महाराष्ट्रवासियों के मन पर छा गई। उसकी रचना हुई भी तो एक अनोखे ढंग से हुई! यह सब पुणे में ही हुआ। सन् 1955 में श्री जी.डी. माडगुलकर ने गीत रामायण का प्रथम गीत अपने चित्र गायक सुधीरफडके से स्वर बद्ध करवाया था जो पुणे आकाशवाणी से प्रस्तुत किया गया था। उसे जनता ने अत्यंत पसंद किया था। उसकी सफलता के फलस्वरूप प्रत्येक सप्ताह उस कथा का एक अन्य गीत प्रस्तुत किया जाने लगा जिसे सुधीर फडके गाते थे। वह रामायण का गीत उसी सप्ताह लिखा जाता था और गाया जाता था। इस प्रकार, गीतों में रामायण की कथा का क्रम प्रारंभ हुआ। उस समय दूरदर्शन अस्तित्व में नहीं था और न ही केबिल चैनल। मनोरंजन का साधन रेडियो तक ही सीमित था। उस कथा ने जनता के हृदयों को मोह लिया। वे बेसब्री से उस दिवस की प्रतीक्षा करने लगते थे, जब एक अन्य ‘गीत-रामायण’ का गीत, रेडियो पर प्रस्तुत किया जाएगा। यह भी सुनने में आता है कि प्रेम व भक्ति सिद्ध हृदयों से, वे रेडियो के सामने अगरबत्तियाँ, धूप और दीप जलाते थे व रेडियो को हार भी पहनाते थे।




सन् 1957 में सूचना प्रसारण मंत्रालय की ओर से ‘गीत रामायण’ पुस्तक - 56 गीतों वाली - प्रकाशित हुई और उसके अनेक संस्करण हाथों हाथ बिकने लगे। 



रामायण की लोकप्रियता के कई कारण हंै। इस कथा में जीवन व मानवीय स्वभाव के प्रायः सभी रस शामिल है। इसमें शृंगार, वीर, करुणा, भक्ति, वात्सल्य, सकारात्मक भाव और रस तो हैं ही पर इसमें रौद्र, बीभत्स, ईर्ष्या , क्रोध व घृणा जैसे नकारात्मक भाव और रस भी हैं। इसमें ऋषि-मुनियों के जप-तप, योग अभ्यास की बातें है। राजा महाराजाओं की अपने गुरु के प्रति श्रद्धा की भावनाएँ, जनता का अपने राजाओं के प्रति प्रेम व आदर, राजाओं का जनता के प्रति स्नेह व उत्तरदायित्व की भावना, ये सब बातें हैं। राम व सीता का प्रेम , भाई-भाई के प्रति मोह व प्यार व कुर्बानी का जज़्बा है तो अन्य स्थानों पर दैत्य-राक्षसों का ऋषि मुनियों पर अत्याचार, कैकेयी की ईर्ष्या, अपने पुत्र से पक्षपात, शूर्पणखा का अद्भुत व्यवहार, रावण का सीता-हरण इत्यादि नकारात्मक घटनाएँ भी हैं। यही कारण रामायण की अत्यधिक लोकप्रियता का है। किसी भी श्रेष्ठ कथा की सफलता का रहस्य, नेगेटिव व पाज़ेटिव में सटीक संतुलन रखने की कला में समाया है और इस कथा में यह सब है।





मैं 'गीत रामायण' की चर्चा कर रही थी। पूछा जा सकता है कि मैं गीत रामायण की ओर कैसे आकर्षित हुई ? दिसंबर 1979, सहसा अपनी पुस्तकों की दुकान माडर्न बुकस्टाल पर मेरी दृष्टि मराठी ‘गीत रामायण’ पर पड़ी। कुछ वर्ष पूर्व मैंने सुधीर फडके को मंच पर गीत रामायण के गीत गाते सुना व देखा था। मैं उत्साहपूर्वक उस पुस्तक को ध्यान से पढ़ने व समझने की कोशिश करने लगी। फिर गीत रामायण के एल.पी.रिकार्ड खरीद लिए और उन्हें ध्यानपूर्वक सुनने लगी, पुस्तक सामने रखकर।




मार्च1980 में रामनवमी पर गीत रामायण का रौप्य उत्सव मनाया जाने वाला था और सात रातें सुधीर फडके संपूर्ण रामायण के गीत गाने वाले थे। मेरे संगीत प्रेम ने उस ओर मुझे आकर्षित किया। मैं सभी रातें वहाँ थी। कुछ काव्य, कुछ संगीत, कुछ वातावरण ने मुझे प्रेरित किया अपनी लेखनी को अपने हाथ में उठाने को। मराठी काव्य संग्रह का सिंधी में अनुवाद करने का विचार वहीं, मुझे बैठे-बैठे आया। वहाँ सहस्र श्रोताओं के बीच, फ़र्श पर बैठे बैठे, कई बार मेरी आँखें अश्रुसिक्त हो आई थीं परंतु एक विषेष गीत ने मुझे अधिक रुलाया और वह था तोड़ी रागिनी पर आधारित गीत, ‘‘राम चालले तो तर सत्पथ/थाम्बा सुमंत थाम्बा वरे रथ।’’ राम, सीता, लक्ष्मण रथ में बैठकर बनवास के लिए जा रहे हैं। सुमंत मंत्री रथ हाँक रहा है। अयोध्या की समस्त जनता पलट आई है और रथ के पीछे पीछे चल रही है और विलाप करती, सुमंत मंत्री से बिनती करती है: सुमंत, रथ थाम ले। रोक ले। मत ले जा हमारे प्यारे राम को अयोध्या से दूर। 




यह गीत मेरी सिंधी गीत रामायण का 16वाँ गीत है।



कार्य आरंभ करने से पूर्व, मैंने डाक्टर खूबचंदाणी जी से परामर्श लिया। उन्होंने मुझे प्रोत्साहित किया। वे अपनी दूरदर्शी दृष्टि से, इस पुस्तक के अनुवाद द्वारा संगीत व नृत्य के साधनों द्वारा, सिंधी युवा पीढ़ी तक काव्य व साहित्य का संदेशा पहुँचते देख सकते थे और यही उनका स्वप्न था। उनके ज़रिए, पुस्तक प्रकाशन के हेतु, मुझे महाराष्ट्र राज्य सांस्कृतिक मंडल मुंबई से सहायता मिली तथा सेंटर फ़ार कम्युनिकेशन की ओर से यह पुस्तक प्रकाशित हुई। यह पुस्तक सिंधी की अरबी व देवनागरी दोनों लिपियों में तैयार की गई।




यद्यपि यह पुस्तक 1987 में प्रकाशित हुई परंतु मैंने उन गीतों को स्वरबद्ध कराने की तैयारी 1980 में ही आरंभ कर दी थी। सुधीर फडके उन सिंधी गीतों को अपनी रचित मराठी तरज़ों पर तैयार बिठाना चाहते थे किंतु मैंने उस काव्य की रचना एक सिंधी संगीतकार द्वारा कराने के हक में फैसला किया ताकि उनमें सिंधी लोक संगीत की महक व निजता उत्पन्न हो। बुलो सी. रानी (जोगन’ फिल्म के सुप्रसिद्ध संगीतकार) से, बेहतर सिंधी संगीतकार मुझे नहीं सूझे और मैं उनसे मिलने मुंबई पहुँच गई।




उनके समक्ष हारमोनियम की पेटी रखी थी। मैंने ‘तोड़ी रागिनी’ पर आधारित सुधीर फडके वाली धुन पर ‘राम हलयो आ सच्चाइअ पथ’ गुनगुनाकर सुनाया और वे उन्हीं दो पंक्तियों को उसी ‘तोड़ी रागिनी’ में अपनी भिन्न धुन पर गाने लगे। उनकी आवाज़ में सोज़ था, दर्द था, इल्तिजा थी और प्रकटीकरण प्रभावशाली! मुझे लगा, मैं अपनी मंजिल पर पहुँच गई थी। और मेरा काम वहीं से आरंभ हुआ। विषय धार्मिक, कथा पुरातन व अभिजात थी अतः संगीत का शास्त्रीय होना अनिवार्य था। ‘अंतराओं’ के बीच वाले ‘साज़ों’ के टुकड़े इतने सुंदर व लयपूर्ण बने कि रिकार्डिंग के पश्चात, उसी संगीत पर नृत्य नाटिका तैयार करवाने का विचार जागृत हो उठा। गीतों के बीच वाली कमेंट्री पूजनीय दादी हरी वासवाणी जी ने अत्यंत सुंदर व प्रभावशाली अंदाज में की।




सन् 1982 में मुंबई मंे ‘सिंधू सभा’ शांबा ने अपने ‘रक्षाबंधन’ के सांस्कृतिक कार्यक्रम का दायित्व मुझे सौंप दिया और मैं नृत्य नाटिका को प्रस्तुत करने की तैयारी करने लगी। मंुबई में रहने के लिए फ्लैट का प्रबंध किया गया। ट्रेन का पास बनवाया गया। मैंने मंुबई स्थित डांस डाइरेक्टर श्री पुराव (लोक नृत्य के माहिर) का सहयोग लिया। वे एक जादूगर थे! उनका कहना था कि वे किसी भी लड़की अथवा लड़के से नृत्य करवा सकते हैं। वे कोलंबस स्कूल में डांस मास्टर थे। उन्हीं ने 45 लड़कियों को मेरे पांच गीतों के लिए कमेंट्री सहित तैयार किया -

1. लव कुश का राजा रामचंद्र के दरबार में प्रवेश व नृत्य

2. यज्ञ पुरुष का ‘पायस दान’ नृत्य

3. राम का जन्म उत्सव

4. ताटिका वध

5. सीता स्वयंवर





यह एक घंटे का कार्यक्रम मुंबई के बिरला मातृश्री हाल में ज़बरदस्त सफलता से प्रस्तुत किया गया। उसी सफलता से पे्ररित होकर उसी प्रोग्राम को उसी वर्ष (1982) के नवंबर मास में पुणे के नेहरू मेमोरियल हाल में मैंने पेश किया तथा श्री पुराव जी को अपनी 45 लड़कियों के ट्रूप सहित सांस्कृतिक विभाग का कन्वीनर नियुक्त किया, इस आशा से कि मैं भारत भर के नगरों व उपनगरों में उनकी स्थापित शाखाओं में ऐसे कार्यक्रम पेश करूंगी। किंतु यह काम मेरे लिए सरल नहीं था। पुराव से काम लेना कठिन था और सस्ता भी नहीं था। मैंने पुणे की पिंपरी की लड़कियों का एक ट्रूप तैयार किया और पुराव के साथ काम करने की ट्रेनिंग का लाभ उठाते हुए कुछ नगरों - बैंगलोर, थाणे, मंुबई, पुणे - में गीत रामायण की नृत्य नाटिका पेश की।




‘गीत रामायण’ वाल्मीकि रामायण पर आधारित है। लव और कुश, ऋषि वाल्मीकि की सिखाई रामायण की कथा, अयोध्या के राजा रामचंद्र को गाकर सुनाने राजा के दरबार में आते हैं। राजा नहीं जानते कि वे कौन हंै और बालकों को भी पता नहीं कि वे उन्हीं के पुत्र हैं। श्री राम को, श्री राम की कथा उन्हीं के पुत्र गाकर सुनाते हैं। मैं नृत्य नाटिका का प्रथम दृश्य पाठकों के सामने रखना चाहती हूँ -

मंच पर अंधेरा है। केवल हवनकंुड में अग्नि प्रज्वलित है। अगरबत्ती धूप का धुँआ सुगंध चारो ओर फैली है - सहसाश्रीराम श्रीरामकी ध्वनि कानों में पड़ती है। स्पाॅट लाइट का प्रकाश, राजा श्री राम के मुख पर पड़ता है जो राजाओं की वेशभूषा, मुकुट इत्यादि से शोभित सिंहासन पर बैठे हैं। यज्ञ के मंत्र आरंभ होते हैं। रोशनी बढ़ती जाती है और राजा की दरबार का दृश्य सामने आता है ऋषि मुनिस्वाहा स्वाहाके उच्चारण से अग्नि में आहुति दे रहे हैं। आठ लड़कियाँ हाथ जोड़े खड़ी हैं। कमेंट्री आरंभ होती है। दरबान प्रणाम करके राजा को इशारों में बताते हैं कि दो बालक उनसे मिलना चाहते हैं। श्रीराम संकेत से अनुमति देते हैं। लव कुश, वीणाओं को थामे, बनवासियों के वेश में प्रवेश करते है और नृत्य आरंभ होता है: 'अगियाँ राम जे गायण/रामायण लव कुश बुधाइण (मूल मराठी: श्री रामचंद्र ऐकती/लव कुश रामायण गाती) आठ लड़कियाँ भी नृत्य करती हैं।
मेरी ‘सिंधी गीत रामायण’ पुस्तक का विमोचन जगद्गुरु शंकराचार्य श्री स्वरूपानंद सरस्वती के कर कमलों से 27 अगस्त 1987 को (उन्हीं के जन्म दिवस पर) पुणे के नेहरू मेमोरियल हाल में हुआ था। उस अवसर पर मैंने यही नृत्य नाटिका उपहार के रूप में प्रस्तुत की थी। उस समय शंकराचार्य जी स्वयं उसी मंच पर अपने सिंहासन पर विराजित थे और मेरे पात्र श्रीराम भी उसी मंच पर विराजमान थे। वास्तविक शिष्य भगवा वेशधारी भी वहाँ उपस्थित थे तो कलाकार ऋषि मुनि भी मगवा वस्त्र धारण किए अपना चरित्र निभा रहे थे। मंच वास्तविक साधुओं व कलाकार बनवासियों की उपस्थिति से प्रभावशाली प्रतीत हो रहा था। यह कहना कठिन था कि कौन वास्तविक साधु है और कौन कलाकार साधु! संगीत, नृत्य व संपूर्ण वातावरण से श्री शंकराचार्य जी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने कार्यक्रम के आरंभ होते ही अपने शिष्य को संकेत कर, लेखन-सामग्री मंगवाई और मुझे वहीं तीन प्रमाणपत्र प्रदान किए और मुझे ‘‘श्री राम भक्ति परायण’’ की उपाधि से सुशोभित किया।




किन्तु अकेले व्यक्तिगत रूप से यह भारी परिश्रम वाला कार्य निरंतर करना मेरे लिए संभव नहीं था। मैं धीरे-धीरे अपनी सांस्कृतिक गतिविधियों को कम करती गई और साहित्य में लीन होती गई। संगीत व नृत्य के संसार को तजकर अपनी क़लम से काम लेना आरंभ किया। परंतु कला का रंगीन संसार अब भी मुझे आमंत्रित करता है। हो सकता है किसी समय मैं उसे स्वीकार कर लूँ और उस संसार में पुनः प्रवेश करूँ|~

6 comments:

  1. बढिया लेख। लेखिका रीटा शाहणी ने अपनी लेखनी और कला के प्रति जो प्रतिबद्धता जताई है वह सराहनीय है। उन्होंने सिंधी भाषा के संगीतकार बुलो सी.इरानी का चयन करके स्थापित किया कि भाषा विशेष का व्यक्ति ही उसके सूक्ष्म तथ्य को समझ सकता है। यह उनके रामायण जैसे ग्रंथ के प्रति श्रद्धा को भी व्यक्त करता है।

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  2. बढ़िया एवं ज्ञानवर्द्धक लेख के लिए धन्यवाद .

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  3. पहले बार ये जानकारी मिली ! बहुत धन्यवाद !

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  4. प्रसाद जी , सिद्धार्थ जी और ताऊ जी ,

    सिंधी और हिन्दी की उम्रदराज लेखिका रीटा शहाणी जी के इस संस्मरणात्मक आलेख को पसंद करने और अपनी राय से अवगत कराने के लिए धन्यवाद् स्वीकारें.

    स्नेह बना रहे.

    जय राम जी की.

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  5. आपके प्रोत्साहन के लिये हार्दिक आभार। आगे भी इसी तरह के शोधपरक लेख आपको और देखने के लिये मिलेगें। आपका ब्लॉग भी मेरे लिए अध्य्यन और रूचि का विषय है, जिसके परिणाम आपको जल्द ही देखने को मिलेगें।

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  6. सुंदर और उपयोगी संकलन -कृपा कर चौपाई /दोहा संख्या भी दें ! सठ सन विनय न खल सन प्रीती -शायद मूल पाठ है ?

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