रामायण संदर्शन

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Wednesday, October 29, 2008

अक्तूबर 2008: आलेख - 4 . नाते नेह राम के मनियत

नाते नेह राम के मनियत


‘नाते नेह राम के मनियत’ शीर्षक गोस्वामी तुलसीदास की विनयपत्रिका के विनय के पद ‘जाके प्रिय न राम वैदेही’ से चयित किया गया है। तुलसीदास जी के उक्त विनय के पद के संबंध में ऐतिहासिक जनश्रुति है कि इसे प्रेमदीवानी मीराँ के एक पत्र के उत्तर में अपनी राय देते हुए लिखा गया था। मीराँ के संबंध में यह ऐतिहासिक तथ्य है कि उनके ससुराल पक्ष के प्रायः सभी संबंधी जन उनकी अतिशय कृष्णभक्तिवश पुरुष संतों के साथ उठने-बैठने, कृष्ण मंदिर में सबके सामने भावविभोर होकर नाचने तथा पशुबलि के महाप्रसाद को अस्वीकारने के कारण नाराज थे। इसीलिए राणा ने दंड स्वरूप उन्हें विष का प्याला पीने हेतु विवश किया। किंतु इतने पर भी मीराँ की कृष्णभक्ति कम नहीं हुई। हो सकता है, ऐसी परिस्थिति में मीराँ ने गोस्वामी तुलसीदास से अपने कृष्णभक्ति संबंधी व्यवहार के संबंध में सलाह मांगी हो; और तब तुलसीदास जी ने ‘जाके प्रिय न राम वैदेही’ पद लिखकर उन्हें भेजा हो। निश्चय ही इस पद ने मीराँ को सान्त्वना, सुख, शांति और प्रोत्साहन दिया होगा। कारण स्पष्ट है। तुलसीदास जी ने इस पद के माध्यम से मीराँ के व्यवहार को उचित ठहराया है। तुलसीदास जी ने अपने इस पद के अंत में ‘ऐतो मतो हमारो’ कहकर अपनी सलाह ही मीराँ को नहीं दी वरन जनश्रुति की भी पुष्टि की है।


‘नाते नेह राम के मनियत’ कहकर तुलसीदास जी ने स्पष्ट किया है कि भगवान के प्रति भक्त का नेह का नाता ही संसार के समस्त नातों से श्रेष्ठ होने के कारण सर्वोपरि है। इतना ही नहीं, वस्तुतः यह नाता ही भक्त को जीवन में महत्व और श्रेष्ठता प्रदान करता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि संसार में नेह या प्रेम के तीन रूप होते है। वस्तु के प्रति प्रेम को आसक्ति, व्यक्ति के प्रति प्रेम को अनुरक्ति और परमात्मा के प्रति प्रेम को भक्ति कहते हैं। तात्पर्य यह कि प्रेम का आलंबन बदलने से उसका रूप बदल जाता है। लेकिन प्रेम का सर्वोत्कृष्ट रूप भगवान की भक्ति में ही अभिव्यक्त होता है।


उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि ‘नाते नेह राम के मनियत’ में राम के प्रति नेह का अर्थ राम के प्रति भक्ति है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि भगवान के प्रति यह भक्ति संसार के अनेक नातों को आधार बनाकर की जा सकती है। ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव’ द्वारा यही संकेत दिया गया है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी यही बात कही है -
तू दयालु, दीन हौं, तू दानि हौं भिखारी।
तात, मात, गुरु, सरना तू सब विधि हितु मोरे।
तोहिं मोहिं नाते अनेक, मानिये जो मानै।
ज्यों त्यों तुलसी कृपालु! चरन-सरन पावै।


इससे तुलसी की चौपाई, ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभुमूरति देखी तिन तैसी’ की भी पुष्टि होती है। पर तुलसी ने अपने इष्ट भगवान राम के साथ स्वामी-सेवक के नाते को स्वीकार किया है। इसीसे वे स्पष्ट कहते हैं - सेवक-सेव्य भाव बिनु भव न तरिअ उरुगारि।
पुनः तुलसी अपने एक विनय के पद में अपने मन को धिक्कारते हुए कहते हैं -
‘राख्यो राम सुस्वामी सों नीच नेह न नातो’।


यहाँ यह उल्लेख करना अनुचित न होगा कि विनय के पदों के चार महत्वपूर्ण लक्षण होते हैं -
प्रथम: भगवान की महत्ता बताना,
द्वितीय: भक्त की लघुता बताना,
तृतीय: अपने दोषों या अवगुणों के लिए क्षमा याचना करना और
चतुर्थ: ईष्वर से कृपा करने या तारने की प्रार्थना करना।


तुलसी और सूर के विनय के पदों में इन्हें सहज ही देखा जा सकता है।

रामचरितमानस के शबरी प्रसंग में भगवान राम ने भगवान और भक्त के बीच भक्ति के नाते को ही सर्वोपरि माना है। वे स्पष्ट कहते हैं -
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता
मानउँ एक भगति कर नाता।।


तुलसी के राम ऊँच-नीच, जाति-पाँति, छोटे-बड़े और अस्पृश्यता के भेदभाव को स्वीकार नहीं करते। उसे पूरी तरह नकार देते हैं -
जातिपाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई।।
भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल वारिद देखिअ जैसा।।

भावार्थ यह कि जीवन में जाति-पाँति की उच्चता, कुल की श्रेष्ठता, धर्म की महत्ता, बड़े होने की ख्याति, धनबल और बाहुबल का प्रभाव, कुटुम्ब की प्रतिष्ठा, गुणों की बहुलता और चतुराई की तीक्ष्णता आदि के होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य जलहीन बादल की तरह भले ही हमारे सिर के ऊपर शोभायमान हो किंतु निरर्थक और महत्वहीन होता है। दूसरे शब्दों में जाति-पाँति, कुल, धर्म, बड़प्पन, धन, बल, कुटुंब, गुण और चातुर्य से मनुष्य को सच्ची श्रेष्ठता प्राप्त नहीं होती। सच्ची श्रेष्ठता केवल भगवान के प्रति सच्ची भक्ति से ही प्राप्त होती है। उसके सामने संसार में श्रेष्ठता प्रदान करने वाले समस्त तत्व बौने हो जाते हैं। यहाँ भगवान राम ने जो सबसे बड़ी बात कही, वह यह कि भक्ति का अधिकार सबको हैं। यहाँ वे किसी प्रकार के भेदभाव को स्वीकार नहीं करते। अतः भगवान राम का अछूत समझी जानेवाली शबरी की कुटिया में पधारना, उसका आतिथ्य स्वीकार करना, उसे नवधा भक्ति का उपदेश देना तथा उसे ‘सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे’ कहकर भक्त शिरोमणि की उपाधि देना अत्यंत क्रांतिकारी घटना है। यह अस्पृश्यता के भाव को पूरी तरह नकारती है तथा जीवन में भक्ति को सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित करती है। इससे यह सिद्ध होता है कि जीवन में सच्ची महानता और श्रेष्ठता केवल भगवान की भक्ति से प्राप्त की जा सकती है। अतः भगवान के साथ भक्ति का नाता स्थापित करना जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है।



वन गमन के प्रसंग में तुलसीदास जी सीता जी के माध्यम से पुनः यही बात कहलाते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि यहाँ सीता का भगवान से भक्ति का नाता पति रूप में है। इसीसे वे स्पष्ट कहती हैं -

जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते। पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते।
तनु धनु धामु धरनि पुर राजू। पति विहीन सब सोक समाजू।।
भोग रोग सम भूषण भारू। जम जातना सरिस संसारू।
प्राणनाथ तुम बिन जाग माहीं। मों कहुँ सुखद कतहुँ कछ नाहीं।।
जिय बिनु देह नदी बिनु बारी। तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी।।
नाथ सकल सुख साथ तुम्हारे। सरद विमल विधुवदन निहारे।।
खग मृग परिजन नगर बनु बलकल विमल दुकूल।
नाथ सदा सुरसदन सम परनसाल सुख मूल।।



भगवान राम ने भक्तिविहीन व्यक्ति की तुलना जलरहित बादल से की थी। वहीं सीता जी भक्तिहीन नारी की तुलना जलरहित नदी और प्राणहीन शरीर से करती हैं। वे भगवान राम के लिए सास, ससुर, बहन, राजमहल के सुख आदि सबको तिलांजलि देकर भक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती है। लक्ष्मण जी भी सीता का ही अनुकरण करते हैं। वे भगवान राम से स्पष्ट कहते हैं -
जहँ लगि जगत सनेह सगाई।
प्रीति प्रतीति निगम निजु गाई।
मोरे सबइ एक तुम स्वामी। दीनबंधु उर अंतर जामी।।
धरम नीति उपदेसिअ ताही। कीरति भूति सुगति प्रिय जाही।।
मंक्रम वचन चरन रति होई। कृपासिंधु परिहरिअकि सोई।।


इस प्रकार लक्ष्मण भी माता, पिता, पत्नी, राजमहल की सुख-सुविधा आदि सभी को अस्वीकारते हुए भगवान राम की भक्ति को ही महत्व प्रदान करते हैं।


अतः निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास के मतानुसार संसार में भगवान के साथ भक्ति का नाता ही सर्वश्रेष्ठ, सर्वोपरि, सार्थक और सत्यं, शिवम्, सुन्दरं का पर्याय है।¨


- डॉ. गार्गीशरण मिश्र ‘मराल’

2 comments:

  1. रामायण नाम सुनते ही कुछ ऐसा हो गया जो शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता, साधुवाद.

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  2. COMMON MAN,
    आगमन और टिपण्णी के लिए आभार स्वीकारें.

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