*रामायण- संदर्शन
रामायण संदर्शन
Thursday, July 30, 2009
Monday, April 6, 2009
माधव कन्दली
माधव कंदली की असमिया रामायण
चंद्र मौलेश्वर प्रसाद
चौदहवीं शताब्दी तक आते-आते वाल्मीकि रामायण की इतनी ख्याति फैल गई थी कि असम के राजा महामाणिक्य[१३३०-१३७०ई.] को अपनी भाषा में रामायण सुनने की इच्छा हुई। उन्होंने उस समय के प्रसिद्ध कवि माधव कंदली को असमिया भाषा में रामायण रचने की प्रेरणा दी। माधव कंदली ने इसे महाराज के आदेश के रूप में स्वीकार करते हुए कहा है--
कविराज कंदली ये आमोकेसे बुलवाया
करिलोहो सर्वजन बोधे
रामायण सुप यारा, श्री महामाणिके ये
बाराह राजा अनुसधे
सत काण्ड रामायण पदबंधे निबंधिलो
लम्भा परिहारी सरोध्रिते
महामाणिक्योरो बोलो काव्यरस किछो दिलों
दुग्धक मतिलो येन घृते
पंडित लोकर येबि असंतोष उपाजय
हथ योरे बोलों शुद्धबक
पुष्पक बिचारी येबे तैते कथा नपावाः
तेबे सबे निन्दिबा अमक॥
माधव कंदली ने वाल्मीकि रामायण को ही आधार बना कर कोथा रामायण की रचना की परंतु पात्रों को दैविक रूप न देकर मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत किया। उन्होंने राम, सीता आदि को ऐसे पात्र बनाए जिनमें सदगुणों के साथ-साथ कुछ मानवीय दुर्बलताएँ भी झलकती हैं। इसीलिए माधव कंदली रचित रामायण को वह धार्मिक महत्त्व नहीं मिल पाया जो पंद्रहवीं शताब्दी में कृत्तिबासी रामायण को या सोलहवीं शती में रामचरित्रमानस को मिला है।
इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि पंद्रहवीं सदी की राजनीतिक उथल-पुथल में माधव कंदली के इस महाकाव्य का आदि[प्रथम] काण्ड तथा उत्तर[अंतिम] काण्ड नष्ट हो गए। फिर भी, असमिय साहित्य में माधव कंदली के उत्तराधिकारी माने जाने वाले साहित्यकार माधवदेव तथा श्रीमन्त शंकरदेव [१४४९-१५६८ई.] ने आदि काण्ड तथा उत्तर काण्ड की पुनर्रचना करके कोथा रामायण को सम्पूर्ण किया। यह कहा जा सकता है कि श्रीमन्त शंकरदेव को माधव कंदली की रामायण धरोहर में मिली थी और वे इस पर कृतज्ञता जताते हुए अपनी कविता में कहते हैं--
पूर्वकवि अप्रमदि माधव कंदली आदि
पदे विरचिल राम कथा
हस्तिर देखिय लडा ससा येन फुरे मार्ग
मोरा भइला तेनह अवस्था॥
माधव कंदली ने अपनी रामायण में विभिन्न मीटर की शैली का प्रयोग किया गया है। इस महाकाव्य में पद, झूमर, दुलारी, छवि आदि का प्रयोग देखने को मिलता है। कवि ने पात्रों को जो मानवीय आकार दिया है, इसके कारण यह काव्य वाल्मीकि रामायण से भिन्न हो जाता है। जहाँ वाल्मीकि रामायण में करुणा रस झलकता है वहीं माधव कंदली की कथा श्रृंगार रस में डूबी नज़र आती है।
यह समझा जाता है कि माधव कंदली की रचनाओं के कारण ही असमिया साहित्य को पहचान मिली है। वाल्मीकि रामायण को वे वेद के समान मानते थे। तभी तो उन्होंने अपनी कृति में कुछ अंश सिधे वाल्मीकि रामायण से उठा कर उनका असमिया अनुवाद प्रस्तुत किया है। उन्होंने अपने महाकाव्य में कुछ क्षेपक भी जोडे़ हैं जो कदाचित महाराज महामाणिक्य के अनुरोध पर लिखे हों।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि माधव कंदली का यह महाकाव्य भावी पीढी़ के लिए प्रेरणास्रोत बना तथा साहित्यकारों का पथप्रदर्शन करता रहा। तभी तो असमिया भाषा के प्रसिद्ध आलोचक बिरंची दास बरुआ कहते हैं - "अपने पीछे छोडे़ माधव कंदली के समृद्ध एवं सुंदर शैली का अनुसरण करते हुए शंकरदेव जैसे अगली पीढी़ के रचनाकारों ने उन्हीं के पदचिह्नों पर चलते हुए असमीय साहित्य में योगदान दिया। यही कारण है कि असम की संस्कृति पर भी रामायण की अमिट छाप देखी जा सकती है जो भारत के अन्य प्रदेशों में भी अपना प्रभाव रखती है।"
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संदर्भः १।द रामायणा ओफ़ माधव कंदली- रामचरन ठाकुरिया
२।मास्टरपीसेस ओफ़ इंडियन लिटरेचर- नेशनल बुक ट्रस्ट\
३। माधव कन्दली रामायण- शांतिलाल नागर का अंग्रेज़ी अनुवाद
४। माधव कन्दली- विकिपीडिया [अंतरजाल]
Wednesday, April 1, 2009
सर्वोच्च चरित्रात्मा
संसार की सर्वोच्च चरित्रात्मा
थाइलैंड तो जैसे दूसरा भारत ही है। वहाँ रामकथा का प्रचार ही नहीं होता अपितु वहाँ के राजा भरत की भांति राम की पादुकाएँ लेकर राज्य करते रहे हैं। प्रत्येक राजा अपने को रामवंशी मानता था। यहाँ ‘अजुधिया’, ‘लवपुरी’ और ‘जनकपुर’ है। थाइलैंड में रामकथा को ‘राम कीर्ति’ कहा जाता है। मंदिरों में जगह-जगह रामकथा के प्रसंग अंकित हैं।
कम्बोडिया में भी हिन्दू सभ्यता के अन्य अंगों के साथ-साथ रामायण का प्रचलन आज तक पाया जाता है। छठी शताब्दि के एक शिलालेख के अनुसार, वहाँ कई स्थानों पर रामायण और महाभारत का पाठ होता था।
सुमात्रा को वाल्मीकि रामायण में ‘स्वर्णभूमि’ नाम दिया गया है। रामायण यहाँ के जनजीवन में वैसे ही अनुप्राणित है जैसे भारतवासियों के। बाली द्वीप भी थाइलैंड, जावा और सुमात्रा की तरह आर्य संस्कृति का एक दूरस्थ सीमा स्तंभ है। रामायण का प्रचार यहाँ घर-घर में होता है।
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