रामायण संदर्शन

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Sunday, March 1, 2009

अहल्या

अतिसय बड़भागी अहल्या
--श्री नारायणदत्त गौड़ ‘मौज’
गौतम ऋषि के शाप-वचन अब भी आश्रम के वातावरण में गूंज रहे थे। शापभोग्या अहल्या अपने स्थान पर स्तब्ध खडी़-की-खडी़ रह गई थी। मानवीय संवेदनाएँ कुंठित होने लगीं, इन्द्रियां जड़ होने लगीं। शनै-शनैः वह सुरदुर्लभ ललिता नारीकाया कठोर पाषाण की मूर्ति बनकर गिर पडी़। मूर्ति के जुडे़ हुए हाथ पति को किये गये अंतिम प्रणाम की साक्षी दे रहे थे। ऋषि ने पाषाण में समाये पत्नी के स्वरूप को देखा। कौन जाने विगत साहचर्य की कौन सी स्मृति एक बिन्दु बनकर नेत्रों से ढुलक पडी़। द्रवित हृदय से ऋषि ने पाषाणी-प्रिया कि शापमोचन के लिए समयरेखा खींची- अहिल्ये! तू त्रेतायुग में श्रीराम की चरण-रज पाकर पुनः पावन होकर पतिधाम को प्राप्त होगी। उन्होंने अंतिम बार अपने रमणीक आश्रम को देखा और चल दिये। वे फिर कभी न लौटे।
काल के कराल मुख में सब समा गया। अतीत के अवशेष के रूप में यदि कुछ बचा था तो वह था एक नष्ट-भ्रष्ट आश्रम और उसमें पडा हुआ साढे़ तीन हाथ का अनाहूत शिलाखंड।
युग बदला। श्रीराम आये। ऋषि विश्वामित्र श्रीराम को धनुषयज्ञ दिखाने के लिए उस मार्ग से जनकपुर जा रहे थे। पगडंडी गौतमऋषि के नष्ट-भ्रष्ट आश्रम के पास से गुज़रती थी। श्रीराम ने उपलदेह में व्यथित तपोमूर्ति अहल्या को देखा। राजीवलोचन करुणा से भर आए, चरण रुक गए। विश्वामित्र भी रुक गए। बोले-‘राम! ऋषि गौतम के उजडे़ आश्रम में पडी़ यह शिला शिला नहीं, शापग्रस्त गौतम पत्नी अहल्या है। राम! तुम्हारे चरण की रज पाकर अहल्या पुनः पावन हो जाएगी और पतिलोक को चली जाएगी। आगे बढो़ राम! अपार करुणा को फलवती होने दो।’
प्रभु का दक्षिण चरण उठा और अधर में रुक गया। श्रीराम संकोच में आ गए। बोले-‘माते! नारीमात्र में मातृत्व भाव रखने के कारण मैं तुम्हें पांव से कैसे स्पर्श करूँ?’
अहल्या ने विनती की-‘विलम्ब न करें, प्रभो! अपने पावन पदस्पर्श से मुझे शापमुक्त कीजिये। मैं स्पर्शदूषिता हूँ। अपने सुरनरपूजित चरणों को मेरे मस्तक पर स्थापित कीजिए।’
परम पावन पद के स्पर्श होते ही अद्वितीय सौन्दर्यमयी अहल्या अपने पूर्व रूप में प्रकट हो गई। दसों दिशाएँ दिव्य आभा से भर गईं। श्रीराम के दोनों चरणों को अहल्या ने अपने हृदय से लगा लिया। अक्षय भक्ति का वरदान प्राप्त करके देवी अहल्या सानन्द पति के लोक को सिधारी-एहि भांति सिधारी गौतम नारी बार-बार हरि चरन परी।जो अति मन भावा सो बरु पावा है पतिलोक अनंद भरी॥ [रा.च.मा.१।२११।छं.४]
[‘स्वतंत्र वार्ता’ से साभार]

1 comment:

  1. अभी पढ़ना प्रारम्भ किया है, अच्छा लगा

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