श्रेष्ठ कार्यकारी स्वतः दायित्व का विस्तार करता है
श्रीप्रभुनारायण मिश्र
कोई भी संगठन अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अनेक लोगों का सहयोग लेता है। कुछ कार्य कई लोग मिलकर करते हैं तथा कुछ कार्य अकेले किये जाते हैं। यदि वरिष्ठ अपने कनिष्ठ को कोई काम सौंपता है तथा परिस्थियाँ बदल जाती हैं तो कनिष्ठ को अपना दायित्व परिर्मार्जित कर लेना चाहिए। बदली हुई परिस्थियों में पूर्वप्रदत्त कार्य को यथारूप करना लाभ के स्थान पर हानि पहुंचा सकता है। अच्छा कार्यकारी वह है, जो पस्थितियों के अनुसार स्वतः अपने दायित्व का परिवर्तन, परिमार्जन तथा विस्तार कर ले। लकीर का फकीर अच्छा कार्यकर्ता नहीं हो सकता। हनुमानजी के संदर्भ में रामकथा से एक उदाहरण लें।
सीताजी रावण की लंका के अशोकवाटिका में है। सुग्रीव के वानर चारों दिशाओं में सीताजी की खोज में है। हनुमानजी की टुकडी दक्षिण दिशा में प्रस्थान करती है। खोजी दल का दायित्व बहुत सीमित है। सीताजी को मात्र खोजना है और इसका समाचार भगवान श्रीराम को देना है।
सीतहि देखि कहहु सुधि आई।
हनुमानजी ने अशोकवाटिका में सीताजी की खोज कर ली। सीता को खोज लेने के बाद ही हनुमानजी का कार्य पूर्ण हो गया था। आदेश का पालन हो गया था।
क्या यह उचित एवं प्रशंसनीय होता कि वे भगवान श्रीराम को जाकर बताते कि मैंने सीताजी की खोज कर ली है, वे रावण की अशोकवाटिका में है तथा प्राणोत्सर्ग करने की तैयारी कर रही है। इस बीच यदि सीताजी प्राणोत्सर्ग कर देतीं तो? सम्पूर्ण खोज व्यर्थ हो जाती। योग्य अधिकारी एवं कार्यकारी वह है, जो समय और परिस्थिति के अनुसार स्वतः अपने कार्य एवं दायित्व का उचित विस्तार कर ले।
अब अगली समस्या हनुमानजी के सामने यह है कि वे सीताजी के सामने किस प्रकार उपस्थित हों। वाल्मिकीय रामायण में हनुमानजी द्वारा सोचे गये अनेक विकल्पों की चर्चा है। हनुमानजी विचार करते है कि यदि मैं अपने मूल कपिस्वरूप में सीताजी के सामने अवतरित हो जाऊं तो वे भयवश चिल्ला पडे़गी जिससे आस-पास के प्रहरी सतर्क हो जाएंगे। हो सकता है कि उनसे मेरा युद्ध हो और मैं जीत भी जाऊं! वैसे, युद्ध का परिणाम अनिश्चित होता है। बुद्धिमान व्यक्ति को ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए, जिसका परिणाम अनिश्चित हो।
अगले विकल्प पर हनुमानजी विचार करते हैं कि मैं ब्राह्मण के रूप में संस्कृत में सम्भाषण करते हुए सीताजी के सामने प्रस्तुत होऊं। वे स्वतः उत्तर देते है कि ब्राह्मण वेशधारी रावण ने ही सीताजी का अपहरण किया था।
अंतिम विकल्प के रूप में हनुमानजी विचार करते हैं कि मैं इसी पेड़ पर बैठे-बैठे अयोध्या के आस-पास बोली जानेवाली भाषा में धीमे स्वर में भगवान श्रीराम का गुणगान प्रारम्भ करता हूं। कदाचित भगवान श्रीराम का गुणगान सुनकर मां सीता मुझसे स्वतः बातचीत करने के लिए प्रेरित हों और होता भी ऐसा ही है। वृक्ष पर बैठे हनुमान के मुंह से श्रीराम का गुणगान सुनकर सीताजी कह उठती है-
श्रवनामृत जेहि कथा सुहाई।
कही सो प्रगट होति किन भाई॥
फिर तो, सीताजी से निरापद वातावरण में बात होती है। अब सीताजी को प्राणोत्सर्ग करने की मनःस्थिति से निकालना है। हनुमानजी सीताजी को समझा देते हैं कि माँ, भगवान श्रीराम को यह ज्ञात नहीं था कि आप कहाँ हैं, अन्यथा वे वानरसेना सहित आकर मुक्त करा लेते। सीताजी संशय करती है कि कहाँ रावण की इतनी बलशाली सेना और कहाँ वानरों की नन्ही-मुन्नी सेना!
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना।
जातुधान अति भट बलवाना॥
अब सीताजी को विश्वास दिलाने के लिए हनुमानजी अपना मूल आकार लेते हैं-
कनक भूधराकार सरीरा।
समर भयंकर अतिबल वीरा॥
और फिर, अपनी शक्ति का छोटा सा प्रदर्शन करने के लिए हनुमानजी जान-बूझकर भूख लगने का बहाना करते हैं। सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा।लागि देखि सुंदर फल रूखा॥हनुमानजी एक सीमित युद्ध लड़कर सीताजी के मन में विश्वास एवं रावण के मन में भय पैदा करना चाहते हैं। वे रावण के कई सेनापतियों तथा एक पुत्र का वध करते हैं और लंका को जलाकर राख में मिला देते हैं।
सीताजी को तो श्रीराम की अंगूठी प्रमाण स्वरूप दे दी। अतः हनुमानजी विचार करते हैं कि सीताजी से मिलने का कोई ठोस प्रमाण उनके पास होना ही चाहिए और वे सीताजी से कोई विश्वसनीय चिह्न मांगते हैं-मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा।जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥इस प्रकार सीताजी द्वारा प्रदत्त चूडा़मणि लेकर हनुमानजी श्रीराम के पास वापस जाते हैं।
श्रेष्ठ अधिकारी और प्रबन्धक हनुमानजी की भांति मूल उद्देश्य को ध्यान में रखकर देश, काल और परिस्थिति के अनुसार अपने दायित्व का स्वतः विस्तार कर लेता है। महान उद्देश्यों के लिए व्यक्ति को अपना सहायक हुनुमानजी जैसा रखना चाहिए, जो बुद्धिमत्तापूर्वक अपने दायित्व का समयानुसार विस्तार कर ले तथा विकल्पों का सूक्षमता से मूल्यांकन कर तत्काल उचित निर्णय ले सके।
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[‘स्वतंत्र वार्ता’ से साभार]
हनुमान जी ने एक आदर्श दूत और उत्कृष्ट चरित्र का प्रमाण दिया है लंका में। इस तरह के मिशन और नेगोशियेशन टेबल पर बरबस हनुमान जी याद आ जाते हैं।
ReplyDeleteअच्छा लिखा आपने!
यही विशेषता है हमारे धर्मग्रथॊं मे छुपी मर्मता की । सीधी से दिखने वाली बात का मर्म उसके अन्दर ही छिपा है , आवशयक है उसे उजागर करने की । आभार आपका !!
ReplyDeleteअच्छा प्रसंग -राम जी के पास अंगूठी कहाँ से आयी ? वे तो सब राजसी समृद्धि त्याग चुके थे ? आप बतायेंगें या मैं बताऊँ ?
ReplyDeleteदरअसल श्रीराम तो सारे आभूषणों को त्याग चुके थे -उनकी इस पीडा को यहाँ देखिये -
ReplyDeleteकेवट उतरि दंडवत कीन्हा ,प्रभुहि सकुचि यहि कछु नहीं दीन्हा !
( देते कहाँ से उनके पास धेला भी नहीं था -इसलिए सकुचा गए )
मगर ...मगर ...
ये देखिये -
पिय हिय की सिय जाननिहारी मणि मुदरी मन मुदित उतारी
( पति के संकोच को भांप उनके ह्रदय को समझने वाली सीता जी ने अपनी रत्नजटित अंगूठी उतारी -दी )
रामजी की लीला -उन्होंने वह उंगली अपने पास ही रख ली ! भविष्यद्रष्टा थे न ! और वही मुद्रिका हनुमान को दे दी -और उसे पहचानने में सीता जी ने क्षण भर की देर नहीं लगाई ! )
(अयोध्याकाण्ड )
यदि रुचिकर लगे तो कृपा कर रामायण संदर्शन पर इसे विस्तार दें !
सादर ,
अरविन्द मिश्रा
अरविन्द मिश्राजी की टिप्पणि ने ज्ञान वर्धन किया.आपकी पोस्ट के फलस्वरूप ही यह टिप्पणि पढने को मिली दोनों का ही आभार.
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