रामायण संदर्शन

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Monday, September 22, 2008

सितम्बर २००८ अंक :मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू

निवेदन

मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू


मित्रो!


हमने बडे धोखे खाए हैं। पग-पग पर छले गए हैं। जाने कितनी बार किस किसने हमें ठग लिया और हम अपनी भलमनसाहत की दुहाई देते रहे। भलमनसाहत भी क्या कोई बुरी चीज है ? हर बार हम यही पूछते रहे कि हमने तो किसी का बुरा नहीं किया था; किया क्या, सोचा तक न था; फिर भला हमीं क्यों प्रवचना के शिकार हुए हर बार? पर हम यह क्यों नहीं सोचना चाहते कि भलमनसाहत को अगर विवेक का मार्गदर्शन न मिले तो वह भीषण दोष बन जाती है। क्या हमने कभी इस बात पर विचार किया कि ग्राह्य और अग्राह्य के बीच के फर्क को न समझकर सहज विश्वासी होना आत्महत्या की शुरूआत है। सृष्टि द्वंद्वात्मक है परंतु मनुष्य को द्वंद्व से मुक्त होने पर ही शांति मिलती है। भले और बुरे के द्वंद्व में दोनों को अलग-अलग पहचानना ही होगा। ग्रहण और त्याग का हंस जैसा विवेक इस पहचान के बिना संभव नहीं। यह विवेक आने पर ही भलमनसाहत की सार्थकता है क्योंकि तभी हम दोष और दोषी से दूर रह सकते हैं तथा गुण और गुणी का वरण कर सकते हैं।


अपने प्रभु पर अनन्य निर्भर भक्त के लिए ही यह संभव है कि वह दुरित को काटने और भद्र को बाँटने की प्रार्थना करके सब कुछ को उसके हवाले कर दे। ऐसा भोलापन प्रभु को रिझाता है और प्रभु की यह रीझ भक्त को विवेक देती है। ध्यान देने की बात है, प्रभु विवेक देता है, लेकिन उसके प्रयोग में भक्त स्वतंत्र है। यों, चुनना तो होगा हमें ही - गुण और दोष के बीच तमीज़ करके ; वरना दिव्य विवेक भी छूँछा रह जाएगा। हमारा दोष यही है कि विवेक होते हुए भी हमने बार-बार गलत चुनाव किया, दोष का वरण किया, अपने लिए अपने हाथों नरक रचा। जानबूझ कर भलमनसाहत को आत्मघाती बना डाला।


ऐसे द्वंद्व के समय तुलसी बाबा की वाणी सुन ली होती तो शायद विवेक जग जाता। बाबा कह रहे हैं कि खल अगर किसी सज्जन के साथ गठबंधन कर ले, तब भी अपनी स्वाभाविक मलिनता को नहीं छोड़ता। अभंग है खल की मलिनता। इतना ही नहीं, ये खल बड़े मायावी हैं। साधु का वेष बनाकर आते हैं, सुंदर रूप धर कर आते हैं। पर वेष और रूप की साधुता और संुदरता से रावण और मारीच की स्वभावगत कुरूपता छिप भले जाए, मिटती नहीं है। भलमनसाहत का ढोंग करके राहु और कालनेमि सदा से भलों का छलते आए हैं, लेकिन उनकी दुष्टता अंततः जग जाहिर हुई ही है।


यह सब जानकर भी अगर कोई दुष्टों के साथ भी भलमनसाहत का ही आचरण करता जाए तो उसे भलामानुस नहीं मूर्ख और मूढ़ ही कहा जाना चाहिए - वह इस गुणदोषमय द्वंद्वात्मक जगत के योग्य नहीं ! अपनी इसी अयोग्यता के कारण हम बार-बार धोखा खाते हैं, छले जाते हैं, पिटते हैं और हारते रहते हैं !
- ऋषभ देव शर्मा
सम्पादक

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पुस्तक चर्चा

तुलसीदास: भक्ति प्रबंध का नया उत्कर्ष
- डा. कैलाश चंद्र भाटिया



पं. विद्यानिवास मिश्र ललित निबंधों के साथ ही भाषा, साहित्य, धर्म, संस्कृति के उन्नायक व संपादन कला के आदर्श थे। पं. मिश्र की पुण्यतिथि पर श्री गिरीश्वर मिश्र ने उनके लिखे तुलसी विषयक आलेखों का संकलन कर बड़ा उपकार किया है।

इस पुस्तकमें तीन खंड हैं: - काव्य और उसका परिप्रेक्ष्य , कथा की साधना और विमर्श की संभावना


प्रथम खंड में तीन निबंध संकलित हैं: मध्ययुगीन काव्य का परिप्रेक्ष्य और गोस्वामी तुलसीदास, तुलसी का मानस: विवेक का काव्य, नाते सबै राम सों मनियत। ‘‘तुलसी के राम नेह और नाते निभाते हैं। जिस समय वे किसी एक से किसी एक प्रकार का नेह या नाता निभा रहे होते हैं तो ऐसा लगता है कि वही नेह या नाता सबसे बड़ा नाता है।’’ लक्ष्मण के जब शक्ति लगी तो उन्होंने स्पष्ट कहा - मेरा सब पुरुषारथ थाको। यही बात पंडित जी ने तुलसी से सीखी और जीवन पर्यंत निबाही।



द्वितीय खंड में चार आलेख हैं: रामकथा के मित जग नाहीं, तुलसी के राम का धर्म, भरहिं निरंतर होहिं न पूरे, जिन्हें राम एक बार मिलते हैं।

सबसे उत्कृष्ट है - भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। यह बात समसामयिक ही नहीं, प्रत्येक युग में देखी जा सकती है जिसको भरत के माध्यम से परखा जा सकता है। उन्होंने राम से बड़ा भरत का चरित बखान दिया। भरत की ‘वाणी’ पर कहा गया - सुगम अगम मृदु मंजु कठोरा। अरथ अमित अति आखर थोरा।’’ प्रकारांतर से ‘वाणी’ की सिद्धि तुलसी के साथ-साथ मिश्र जी के प्राप्त हुई।



तीसरे खंडविमर्श की संभावना’’ में पाँच आलेख हैं - काव्य दृष्टि, प्रासंगिकता, मर्यादा और मर्यादा का अतिक्रमण, पुनर्मूल्यांकन की समस्याएँ व मानस का वैशिष्ट्य।



सार रूप में कहा जा सकता है कि सभी राम तुलसी के राम में है और सभी रामों के अतिरिक्त तुलसी के राम हैं। उनमें तेजस्विता, शील है और प्रजा पालन आदर्श , एकनिष्ठ पति, साथ में करुणा भी है।तुलसी का लक्ष्य है अपने जमाने के भीतर के अंधकार को दूर करना। इस हेतु यह कृति पठनीय है। डा. मिश्र के प्रति श्रद्धांजलि के रूप में पाठकों को नर के रूप में नारायण के दर्शन होंगे।


तुलसीदास: भक्ति प्रबंध का नया उत्कर्ष /
पं. विद्या निवास मिश्र /
संचयन तथा संपादन - गिरीश्वर मिश्र /
ग्रंथ अकादमी, नई दिल्ली-2/2008/
150 रुपए।



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आलेख
मणिपुर में रामायण
- चंद्रमौलेश्वर प्रसाद




मणिपुर की भाषा को मैतैरोल, मीतैलोन, मीतैलोल जैसे नामों से पुकारा जाता रहा है। एक किंवदन्ती यह है कि सृष्टि के प्रारंभ में अतिया गुरु षिदबा ने अपने पुत्रों-सनामही और पाखङ्बा को मैतैरोल के माध्यम से ज्ञान का प्रारंभिक पाठ पढ़ाया था -
(मणिपुरी कविता मेरी दृष्टि में - डा. देवराज)



मणिपुर वासियों के अपने देवी-देवता थे जिसे मीतै जाति के लोग धार्मिक अनुष्ठान के समय पूजते थे। डाॅ. कीर्ति सिंह का मानना है कि वैष्णव संप्रदाय के मणिपुर में पदार्पण के पहले उमङ्लाई, सनामही, पाखङ्बा जैसे देवी-देवताओं को पूजा जाता था। वैष्णव संप्रदाय के आगमन के बाद इन देवताओं को भी वैष्णव देवताओं के रूप में जोड़ लिया गया। इस प्रक्रिया में सिलहट से आए ब्राह्मण शांतिदास गोसाईं का बड़ा योगदान रहा।


संस्कृत में भुषुंड रामायण, अध्यात्म रामायण, आनंद रामायण आदि का मुख्य स्रोत वाल्मीकि रामायण ही रहा। मणिपुर के विख्यात साहित्यकार पद्मश्री राजकुमार झलजीत सिंह का विचार है कि तुलसीदास मणिपुर के राजा खागेंबा (1597-1652 ई.) के समकालीन थे परंतु राजा गोपाल सिंह गरीब नवाज़ (1709-48) के समय में ही मणिपुर में रामायण का पदार्पण हुआ। गरीब नवाज़ ने वैष्णव धर्म को सर्वश्रेष्ठ धर्म माना और इच्छा प्रकट की थी कि रामायण को मणिपुरी भाषा में लाया जाय। यह कार्य उन्होंने अपने कोषपाल क्षेम सिंह को सौंपा।


उस समय तक मणिपुर में बंगाली प्रभाव बढ़ चुका था। क्षेम सिंह ने बंगाली कृति कृत्तिबासी रामायण के सात खंडों का अनुवाद अपने बंगाली सहायकों की मदद से किया। मीतै भाषा में लिखी रामायण आज भी एन. खेलचंद्र के पास सुरक्षित है। माना जाता है कि कुछ पांडुलिपियाँ बर्मा में भी सुरक्षित हैं। गरीब नवाज़ के देहांत के बाद यदा-कदा चल रहे बर्मी आक्रमण में मणिपुरी रामायण के प्रथम दो खंड लुप्त हो गए थे। बाद में कवि श्रीदम कीसमूचा ने राजा लबन्य चंद के काल (1799-1800) में पुनः बंगाली कृत्तिबासी रामायण का अनुवाद किया।


मणिपुर के अन्य कई कवियों ने समय-समय पर राम-कथा में ऐसे अंष जोड़े जो मूल रामायण में नहीं मिलते। स्थानीय दंतकथाओं आदि को भी इस राम-कथा से जोड़ा गया। इनमें खुमाङ्थेम काओमछा द्वारा जोड़ी गई ‘चंद्रजिनी’ कथा अन्य किसी प्रदेश की रामायण में नहीं पाई जाती। राजऋषि भाग्य चंद्र (1763-98 ई.) के काल में ‘राम स्वार्गारोहण’ में राम के स्वर्ग प्रयाण का वर्णन है। इसके अलावा उन्नीसवीं शताब्दी में रचा गया ‘उत्तराखंड’ भी मणिपुरी साहित्य की उल्लेखनीय उपलब्धि माना जाता हैं।


वैष्णव संप्रदाय का फैलाव मणिपुर में उस समय हुआ जब बंगाल से लोग मणिपुर में जा बसे। वहाँ के स्थानीय लोगों, इन्हें मीतै में छिङ्रेम्बा खेङ्लप या नाङ्छुप हरम (पश्चिम के लोग) कहते थे, और वहाँ से आए ब्राह्मणों (बामोन खुनथोक) ने मणिपुरी देवी-देवताओं को अपने देवताओं का अवतार बताया। इन्हें राजाओं और स्थानीय उच्च अधिकारियों का संरक्षण प्राप्त था, इसलिए इन्हें अपने रामंदी (रामानंदी) मत का विस्तार तथा प्रचार-प्रसार करने में कोई कठिनाई नहीं हुई। इसी प्रकार राम-कथा को भी मणिपुरी संस्कृति में सरलता से स्थान मिला जो पहले से ही मौखिक रूप से बंगाल व बर्मा के माध्यम से मणिपुर में प्रचलित थी।


सांस्कृतिक क्षेत्र में भी मणिपुर बहुत दक्ष है। इसलिए यहाँ के नाटक, नृत्य, कथा साहित्य तथा धार्मिक क्षेत्र में राम को मान्यता मिली। खुमाङ्थेम प्रकाष बताते हैं कि राम की कथा का विभिन्न धार्मिक व सांस्कृतिक अवसरों पर प्रयोग होता है; जैसे श्राद्ध के समय लबाङ्कोन्योजङ्बा का पाठ किया जाता हैं जिसमें राम के स्वर्गवास का वर्णन है। नृत्य तथा नाटकों में सीता-वनवास, सीता-हरण, युद्ध-वर्णन आदि के प्रसंग देखनेवाला मंत्रमुग्ध हो जाता है। मणिपुर में कथा-वाचन ‘वारि लिबा’ में भी रामायण का वाचन लगभग एक माह चलता रहता है, जिसे लोग बड़ी तन्मयता से सुनते हैं।
इसमें दो राय नहीं है कि मणिपुर में रामायण का आधार बंगाली कृत्तिबासी रामायण है और इस बात की पुष्टि मणिपुरी रामायण के हर कांड के अंत में स्वीकारी भी गई है।




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आलेख

गोस्वामी तुलसीदास का शिक्षा-दर्शन
- डा. महेश चंद्र शर्मा


गोस्वामी तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ आज अत्यधिक लोकप्रिय एवं जन-जीवन के सर्वाधिक निकट लक्षित होता है। मानसकार का मूल उद्देष्य सामाजिक जीवन में उन मान्यताओं, मर्यादाओं एवं मूल्यों को स्थापित करना है जिनसे समाज का ‘मंगल’ हो तथा वह समृद्धिशाली-शक्तिशाली बने। ‘रामचरितमानस’ एक ऐसी रचना है जो लोकमंगल के सिद्धांत का बड़े ही सशक्त ढंग से प्रतिपादन करती है।


‘मानस’ के नायक राम शक्ति, शील एवं सौंदर्य से ओतप्रोत हैं। राम व्यक्ति नहीं, वरन् वंदनीय व्यक्तित्व हैं जिनके आदर्ष भरित कार्यकलापों के आधार पर भारतीय समाज को ही नहीं, बल्कि समूचे विष्व-समाज को अपने अंदर अच्छे-अच्छे संस्कार पैदा कर लेने चाहिए।


गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ के ‘बालकांड’ में लिखा है कि - ‘‘कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई।’’ ‘समाज-मंगल’ के इस मानवतावादी संदेश के आधार पर ही पं. रामचंद्र शुक्ल ने गोस्वामी तुलसीदास को हिंदी-साहित्य का ‘श्रेष्ठ कवि’ माना है।


‘मानस’ को भारतीय संस्कृति का दर्पण माना जाता है। इसमें भारतीय संस्कृति अपने ‘षिखर’ पर है। ‘मानस’ के चार भाई (राम, लक्ष्मण, भरत एवं शत्रुघ्न) आज के समाज को परस्पर भाईचारे का संदेष दे रहे हैं। तुलसी ने ‘मानस’ के माध्यम से राम-भक्ति के साथ-साथ शील, आचार, मर्यादा तथा लोक-संग्रह का संदेष प्रदान कर भारतीयों में एक अपूर्व दृढ़ता उत्पन्न की। उन्होंने पारिवारिक आदर्श रखकर भारतीय संस्कृति की उदात्तता का प्रतिपादन किया।


अयोध्याकांड में वर्णित भारतीय आदर्श के आधार पर गोस्वामी तुलसीदास का ‘शिक्षा-दर्शन हमारे सामने आता है - ‘‘जननी सम जानहिं पर नारी। धनु पराव विष तें विष भारी।। जे हरषहि पर संपत्ति देखी। दुखित होहिं पर विपति विषेखी।।’’


‘रामचरितमानस’ में धर्म की व्याख्या मानवमात्र के लिए मंगल विधायक कर्तव्य के रूप में की गई है। इसीलिए इसमें सार्वभौमिकता एवं सार्वजनीनता लक्षित होती है। मानसकार ने (उत्तरकांड) धर्म का सार्वभौमिक लक्षण यह बतलाया है कि - ‘‘परहित सरिस धर्म नहिं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई।’’ इसका अभिप्राय यह है कि परहित-संपादन (समाज-मंगल) सबसे बड़ा ‘धर्म’ है तथा दूसरे को (मनसा, वाचा एवं कर्मणा) पीड़ा पहुँचाना सबसे बड़ा ‘पाप’। यह गोस्वामी तुलसीदास का ऐसा शिक्षा-दर्शन है जो समाज का मार्गदर्शन करने के लिए तथा ‘मानस’ को समझने के लिए ‘टीका’ का कार्य आज भी कर रहा है।


इसमें संदेह नहीं कि समाज-मंगल के मार्ग पर ले जानेवाले लेखन को ही ‘साहित्य’ कहते हैं। इस दृष्टि से विचार-विमर्श करने पर हमें ‘रामचरितमानस’ को ‘श्रेष्ठ साहित्य’ कहने में कोई आपत्ति नहीं होती। गोस्वामी तुलसीदास की यह रचना अजर है, अमर है तथा अमिट है। ‘मानस’ से निकलने वाले ‘शिक्षा-दर्शन' के आधार पर गोस्वामी तुलसीदास एक प्रबोधात्मक साहित्यकार के रूप में सदैव याद किए जाएंगे।




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काव्य


राम
- नलिनीकांत




तुलसी का न,
वाल्मीकि का, मैं तो हूं
सब का राम।


न मंदिर का
न बाबरी का, घट
घट मैं राम।


न लखन न
सिया का, भरत के
वष मैं राम।


नहीं राजा या
मंत्री का, शबरी का
मैं स्नेही राम।


न तन है न
सदन मेरा, सिर्फ
नाम मैं राम।


*****



सत्य सनातन राम
- भानुदत्त त्रिपाठीमधुरेश



राम-नाम ही सत्य जगत में,
और सभी कुछ झूठा है।



राम रमा है अणु-कण-क्षण में,
सारा अग-जग राम का,
जो न राम में रमा कदाचित्,
वह जीवन किस काम का ?
नहीं राम को जाना जिसने,
भाग्य उसी का रूठा है।
राम-नाम ही सत्य जगत में,
और सभी कुछ झूठा है।



राम-नाम-रस जो भी पीता,
वह रहता अलमस्त है,
जहाँ राम का हुआ अनादर,
वहाँ सिद्धि सब ध्वस्त है।
पान करे अविराम अरे मन!
यह तो अमृत अनूठा है।
राम-नाम ही सत्य जगत में,
और सभी कुछ झूठा है।



आदि-मध्य क्या अंत, सभी में
रमा नहीं है राम क्या,
राम-कृपा के बिना कभी भी
हो सकता कुछ काम क्या ?
जिसने तजा राम को जग में
उसका जीवन ठूँठा है।
राम-नाम ही सत्य जगत में,
और सभी कुछ झूठा है।



*****


पुकार
- चक्रधर नलिन


मारुति, मेरी सुनो पुकार।
मन में उपजें शुद्ध विचार।


चारों ओर अंधेरा छाया,
संकट पर है संकट आया,
दूर करो जग की विपदाएं,
मन में जागें नव आशाएं,
भर दो खुशियों से घर मेरा
करो नाथ मम कृपा-अपार।



चरणों में अर्पित यह जीवन,
सार्थक करो अपावन तन, मन,
बाहर, भीतर कर दो सुंदर ,
रहे न मन, वाणी में अंतर,
करो जगत कल्याण सर्वदा
हो सुख, शांति भरा संसार।



विद्या, बुद्धि, विवेक ज्ञान दो,
कीर्ति बढ़ाओ, विश्व -मान दो,
बढ़े नित्य परिवार हमारा,
करो कृपा, सहयोग सहारा,
ईर्ष्या , द्वेष, नहीं मन आये,
उर में करो प्रेम विस्तार।



मेरा जीवन-पथ चमकाओ,
लघु मन की कलिका मुस्काओ,
मिले रणांगन विजय, सफलता,
रहे सतत हार्दिक प्रसन्नता,
मैं अबोध शिशु भोला-भाला
करो हमारा हृदय उदार।

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