रामायण संदर्शन

*

Sunday, October 19, 2008

संपादकीय : अक्तूबर 2008 अंक : नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं




निवेदन

नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं


तुलसी मध्यकाल के सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं प्रतिनिधि कवि हैं.। उनकी कृति ‘रामचरितमानस’ धर्म और भक्ति के बहाने तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों के चित्रण एवं मूल्यों की स्थिति, उनके विघटन तथा नए मूल्यों की तलाश की यात्रागाथा है। उन्होंने अपने काव्य में तनिक सा अवकाश मिलते ही तत्कालीन राजनैतिक एवं सामाजिक अनिश्चितता, संकटबोध तथा आपाधापी का वर्णन आध्यात्मिकता की अन्योक्ति के माध्यम से किया है।


जनता की भाषा के कवि होने के कारण तुलसी जनता की समस्याओं के भी कवि हैं। वे सामान्य जनता के बीच से उभरने वाले ऐसे कलमकार हैं जिन्होंने जीवन की तमाम कुरूपताओं को अपने तन-मन पर झेला है। यही कारण है कि उनके काव्य में उनका युग अपनी तमाम जन-समस्याओं के साथ उपस्थित है।



तुलसी अकबर के समय में विद्यमान थे। अकबर सहित उससे पहले और बाद के सभी शासकों ने भारतीय जनता के साथ प्रयोग के पशु जैसा व्यवहार किया। ‘‘इन शासकों की महत्वाकांक्षा, स्वेच्छाचारिता, धार्मिक संकीर्णता तथा प्रतिशोध की भावना की कोई सीमा नहीं थी। उन्होंने धार्मिक प्रतिशोध से प्रेरित होकर जाने कितने ज्ञान के केंद्र-पुस्तकालयों, संग्रहालयों तथा साधना के केंद्र-मंदिरों और पवित्र स्थानों को नष्ट कर देने में लेशमात्र संकोच का अनुभव न किया। इनकी स्वेच्छाचारिता की कोई सीमा नहीं थी। नियम या विधान अथवा कानून इनकी इच्छानुसार रूप ग्रहण किया करते थे। इन्होंने जनजीवन के साथ जाने कितने प्रयोग किए।’’ (डॉ.. त्रिलोकी नारायण दीक्षित, तुलसी साहित्य: विवेचन और मूल्यांकन - सं. डॉ..देवेंद्रनाथ शर्मा और डॉ.. वचन देव कुमार, पृ. 78)। इस काल में राजपरिवार के अधिकतर सदस्य सुख, भोग, विलास और राजपद के पीछे दीवाने थे। राजदरबारों में अराजकता, स्वार्थपरता और विश्वासघात के षड्यंत्रों का बोलबाला था। अपनी सत्ता की रक्षा की खातिर शासक अपने कृपापात्र सामंतों की पंक्तियाँ तैयार करने में व्यस्त थे। शासक और सामंत मिलकर उत्पादक वर्ग-श्रमिकों और किसानों-का मनमाना शोषण कर रहे थे। ‘‘राज्य का एक वर्ग बहुत संपन्न, साधन संयुक्त और दूसरा विपन्न और साधनविहीन था। जनसामान्य की स्थिति उत्तरोत्तर विकृत होती जा रही थी। जीवन का रूप आर्थिक विपन्नता के कारण विद्रूप हुआ जा रहा था।’’ (डॉ.. त्रिलोकी नाथ दीक्षित, तुलसी साहित्य: विवेचन और मूल्यांकन, पृ. 78)।



इस विपन्नता को तुलसीदास ने स्वयं भोगा था। उन्होंने तत्कालीन शासकों और साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा जनता के दोहरे उत्पीड़न और शोषण को अपनी आँखों से देखा था। महत्वाकांक्षी एवं युद्धविलासी शासकों की व्यक्तिगत सनकों के कारण निरंतर कहीं न कहीं युद्ध चलते रहते थे। युद्ध पशुधर्म है। उससे मनुष्यता त्रस्त होती है। उसकी विभीषिका लंबे समय तक जन-जीवन को अस्त-व्यस्त छोड़ देती है। युद्धों के परिणाम महामारी एवं दुर्भिक्ष के रूप में गरीब जनता को झेलने पड़ते हैं। तुलसीदास युद्धों के इस विषम परिणाम को झेलने वाले युग में जी रहे थे। यही कारण है कि उन्होंने ऊपर से पौराणिक रूढ़ि का निर्वाह प्रतीत होने वाले ‘रामचरितमानस’ के ‘कलि-काल-वर्णन’ में अपने युग की विभीषिका के भोगे हुए यथार्थ का आँखों देखा विश्वसनीय हाल बयान किया है। कलिकाल में बार-बार अकाल-दुकाल पड़ते हैं क्योंकि कृषि नष्ट हो रही है। परिणामस्वरूप जनता दरिद्र, भूखी और दुःखी है - ‘‘कलि बारहिं बार दुकाल परैं, बिनु अन्न दुःखी सब लोग मरैं।’’ (रामचरितमानस, उत्तरकांड, दोहा 101)।



भूख को तुलसी ने इस सीमा तक निकट से देखा और झेला था कि उनका बचपन पेट भरने के लिए मिले चने के चार दानों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के फलों के समान समझने के लिए विवश था। अनाथता और निर्धनता ने तुलसीदास के व्यक्तित्व के गठन में बड़ी भूमिका निबाही थी। ‘‘उनके परवर्ती जीवन, चिंतन एवं साधन-चयन पर इन दोनों का बड़ा गहरा प्रभाव है। भगवत पथ के पथिक होने के कारण उन्होंने अपने लिए धन की याचना कभी नहीं की, किंतु यह स्वीकारा कि भौतिक स्तर पर ‘नहिं दरिद्र सम दुःख जग माहीं’ और लोक कल्याणार्थ जीविकाविहीन लोगों का दुःख दूर करने के लिए प्रभु से आग्रह भरे स्वरों में दारिद्र्य रूपी दशानन से दुनिया को मुक्त करने की प्रार्थना की - ‘दारिद दसानन दबाई दुनी दीनबंधु, दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी।’ अपने लिए ‘जथालाभ संतोष सदा, काहू सों कछु न चहौंगो’ का आदर्श सामने रखने वाले तुलसी ‘रोटी द्वै हौं पावौं’ से ही संतुष्ट थे, किंतु औरों के लिए ‘नहिं दरिद्र कोउ दुःखी न दीना’ की मंगलकामना से प्रेरित होकर समस्त ‘सुख-संपदा’ से संयुक्त समाज की कल्पना वे कर गए हैं।’’ (डॉ.. विष्णुकांत शास्त्री, तुलसी साहित्य: विवेचन और मूल्यांकन, पृ. 97/98)।



गरीबी और भूख की समस्या होते हुए भी मध्यकालीन चेतना के ईश्वरवादी तथा राजभक्तिवादी होने के कारण उस काल में वर्ग-संघर्ष उभरकर सामने नहीं आ सका तथा जनता अन्यान्य समस्याओं में उलझी रही। इस सामाजिक एवं ऐतिहासिक सच्चाई के कारण यह तो अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए कि भक्ति में जनसमस्याओं का समाधान ढूँढने वाली कविता वर्ग-संघर्ष का स्पष्ट चित्रण करते हुए राजतंत्र और सामंतशाही के विरुद्ध किसानों अथवा मजदूरों की क्रांति का बिगुल बजाएगी। परंतु तुलसीदास ने अपनी स्वाभाविक शालीनता को बरकरार रखते हुए अपने युग के अनुरूप रामराज्य के स्वप्न के माध्यम से एक ऐसी वैकल्पिक व्यवस्था की रूपरेखा प्रस्तुत की है जो तत्कालीन कलिकाल की विसंगतियों से मुक्त है। ‘‘अपने समय की दुरवस्था के कारण ही उन्होंने रामराज्य की कल्पना की। दुरवस्था के कारण ही उन्होंने कहा कि ‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवसि नरक अधिकारी।’ उत्तरकांड में एक ओर रामराज्य की कल्पना, दूसरी ओर कलियुग की यथार्थता द्वारा तुलसीदास ने अपने आदर्श के साथ वास्तविक परिस्थिति का चित्रण कर दिया है। किसी भी दूसरे कवि के चित्रों में ऐसी तीव्र विषमता नहीं है; किसी के चित्रण में यह ‘कंट्रास्ट’ नहीं मिलता। परंतु रामराज्य के सिवा अन्यत्र भी दुष्ट शासकों पर उन्होंने अपने वाक्वाण बरसाए हैं। उन्होंने भविष्यवाणी की है कि रावण और कौरवों के समान इन शासकों का भी अंत होगा।’’ (डॉ.. रामविलास शर्मा, भाषा, युगबोध और कविता, पृ. 36)।


तुलसी के काव्य की रचनाप्रक्रिया का वैषिष्ट्य उनकी व्यक्तिगत एवं तत्कालीन जीवन और समाज की विसंगतियों को पचाकर लोकहितकारी मूल्यसृष्टि की तकनीक में निहित है। ‘‘वस्तुतः लोकादर्शी तुलसी का ‘मानस’ समकालीन जनजीवन की पीड़ा, प्रताड़ना एवं संघर्ष से अभिभूत है। स्वार्थ की विभीषिका से सामाजिक जीवन त्रस्त था। इसी कारण पारस्परिक ईर्ष्या - द्वेष अपने चरमोत्कर्ष पर था। समाज में व्याप्त व्यष्टि और समष्टि के इस संघर्ष के समापन के लिए तुलसी की अंतर्भेदनी दृष्टि ने ‘स्व’ (व्यष्टि) को ‘विराट अहं’ (समष्टि) में और विराट अहं को स्व में विलीन करने की आवश्यकता अनुभूत की। तभी स्वांतःसुख सर्वांतःसुख बनकर गौरवान्वित हो सका।’’ (डॉ.. अनिल कुमार मिश्र, रामकथा में जीवन-मूल्य, पृ. 120)।



तुलसी के राम का दीनजन पर विषेष स्नेह है और तुलसी का उनके लिए अत्यंत प्रिय संबोधन ‘गरीबनेवाज’ है। तुलसी जनता की दरिद्रता से बेहद पीड़ित हैं। इसीलिए उनके कलिकालवर्णन में दरिद्रता, अकाल और भुखमरी का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। परंपरागत रूप से पापयुग का प्रतीक पौराणिक कलियुग मात्र ही तुलसी द्वारा चित्रित कलियुग नहीं है बल्कि उन्होंने अपनी आँखों देखे उस समाज का वर्णन किया है जो विविध पाप, ताप, दोष और दरिद्रता से घिरा हुआ था। ’’कलियुग का उल्लेख मात्र कर देने से तुलसी के समाज का मार्मिक चित्र नहीं प्रस्तुत होता। बुराइयों की तालिका प्रस्तुत कर देने से भी बात नहीं बन सकती थी। तुलसी कलियुग के नाम पर अपने समाज का जो वर्णन करते हैं, वह विशिष्ट दृश्यों और घटनाओं से युक्त है इसलिए वह पाठक के लिए दृश्य और चित्र बन जाता है। कलियुग का वर्णन तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ और ‘कवितावली’ में विशेष रूप से किया है। तुलसी के अनुसार कलियुग का सबसे बड़ा लक्षण है - कपट और मिथ्या आचरण।’’ (डॉ.. विश्वनाथ त्रिपाठी, लोकवादी तुलसीदास, पृ. 85)।


तुलसी का समय ऐसा विकट समय था कि धन की खातिर सभी तरह के सामाजिक एवं नैतिक अपराध घटित होते थे। दूसरे का धन हर लेने वाले को गुणवान माना जाता था। गुरु शिष्य का धन हरण कर लेते थे। शिक्षा का उद्देश्य चरित्र का विकास अथवा आत्मोन्नति न रहकर उदर पोषण मात्र रह गया था। गरीबी के राक्षस ने ही यह स्थिति उत्पन्न की थी कि एक ओर लोग ब्रह्मज्ञान की पाखंडपूर्ण चर्चा में व्यस्त थे, तो दूसरी ओर एक-एक कौड़ी के लिए हत्या करने पर उतारू रहते थे - ‘‘सोई सयान जो परधन हारी, जो कर दम्भ सो बड़ आचारी *** हरइ सिष्यधन सोक न हरई, सो गुरु घोर नरक महुँ परई/मातु-पिता बालकन्हिं बोलावहिं, उदर भरइ सोइ धर्म सिखावहिं/ब्रह्मज्ञान बिनु नारि-नर कहहिं न दूसरि बात, कौड़ी लागि मोह बस, करहिं बिप्र गुरु घात।’’(रामचरितमानस, उत्तरकांड, दोहा 99)।



अपने व्यक्तिगत जीवन में तुलसी को दरिद्रता, दीनता, रोग तथा जाति-पाँति के भेदभाव के कारण बहुत कष्ट उठाना पड़ा था। अपने समसामयिक समाज की इन प्रमुख समस्याओं को उन्होंने कलियुग के प्रधान दुर्गुणों के रूप में प्रस्तुत किया है। इनमें भी दरिद्रता ने तो जैसे उनके भक्त-व्यक्तित्व को भी अपने घेरें में ले रखा है। ‘‘राम का जो गुणगान तुलसी ने किया है, रामकथा का जो वर्णन किया है, उसमें दरिद्रता और भूख उनकी रचनात्मकता का अभिन्न अंग बनकर आए हैं। मार्मिक से मार्मिक प्रसंगों में तुलसी को निर्धनता विस्मृत नहीं होती। रामकथा के परंपराप्राप्त रूप को अत्यंत मार्मिक बनाते समय तुलसी अनेकानेक स्थानों पर ‘रंक’, ‘दरिद्र’, ‘गरीब’, ‘भूख’ आदि की सहायता से अपने जिस अत्यंत प्रभावशाली काव्य संसार का सृजन करते हैं, वह उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को समझने की दृष्टि से उपेक्षणीय नहीं है। रामकथा पर आधारित काव्यों की कमी नहीं है, किंतु तुलसी की अपनी विशेषता और उनकी महान लोकप्रियता का कारण तुलसी की वह भावनात्मक दृष्टि है जिससे उन्होंने रामकथा को उपस्थित किया और जो स्वयं तुलसी के व्यक्तित्व और तुलसी के समाज की विशेषताओं पर आधारित है।’’ (डॉ.. विश्वनाथ त्रिपाठी, लोकादर्शी तुलसीदास, पृ. 94)।



वास्तविकता में तुलसी जिस समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं, वह भूमि पर निर्भर रहनेवाला समाज है। ‘‘उत्पादन का मुख्य साधन है भूमि, मुख्य उत्पादक हैं किसान, कर द्वारा इनका श्रमफल हथियाने वाला मुख्य वर्ग है राजाओं और सामंतों का।’’ (डॉ. . राम विलास शर्मा, हिंदी जाति का इतिहास, पृ. 44)। प्रजाहित की चिंता न करते हुए कराधान एवं दंडविधान द्वारा जनता का शोषण करनेवाली राज्य व्यवस्था ही किसानों की गरीबी और दुरवस्था का मूल कारण है। यही कारण है कि गरीबी की समस्या का समाधान सुझाते हुए रामराज्य की कल्पना के माध्यम से तुलसी ने दंडविधान का निषेध किया है और दुखी व दीन से पूर्व दरिद्र के अभाव का निर्देश किया है। पेट की आग से जलता हुआ दरिद्र जनसमुदाय जहाँ बेटे और बेटी तक को बेचने के लिए विवश हो, केवल वहीं कवि रामराज्य में प्रवेश करते ही सुंदर अन्न की प्राप्ति से भूखे व्यक्ति को मिलने वाले आनंद की उत्प्रेक्षा कर सकता है - ‘‘सेवक बचन सत्य सब जाने। आश्रम निकट जाइ निअराने।। भरत दीख बन सैल समाजू। मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू।।’’ (रामचरितमानस, अयोध्याकांड, दोहा 235)।


अनेक स्थानों पर तुलसी ने राम के दर्शन और आलिंगन के सुख की तुलना अन्न और भोजन से की है। उनकी दृष्टि में भूखी जनता के लिए अन्न तथा भरपूर फसल का होना सुराज अथवा रामराज्य का प्राथमिक लक्षण है। चित्रकूट प्रसंग में सुराज वर्णन तथा उत्तरकांड में रामराज्य वर्णन से स्पष्ट होता है कि तुलसी की अभीष्ट राज्यव्यवस्था में भुखमरी तथा गरीबी के लिए स्थान नहीं है। आत्मानुशासन और लोकमंगल की प्रेरणा से संचालित तुलसी का रामराज्य आज भी एक सुख-स्वप्न है - ‘‘अल्पमृत्यु नहिं कवनिउँ पीरा। सब सुंदर सब विरुज सरीरा।। नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।’’ (रामचरितमानस, उत्तरकांड, दोहा 21)।
- डॉ.. ऋषभदेव शर्मा,
संपादक

No comments:

Post a Comment

आपकी टिप्पणियों से प्रोत्साहन मिलता है। आपका प्रत्येक शब्द हमारे लिए महत्वपूर्ण है,अत: अपनी राय अवश्य दें कि आप को कैसा लगा रामायण संदर्शन का यह पृष्ठ! पधारने के लिए आभार भी स्वीकारें।